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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः, ब्राह्मणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषघ्न सूक्त

    ब्रा॑ह्म॒णो ज॑ज्ञे प्रथ॒मो दश॑शीर्षो॒ दशा॑स्यः। स सोमं॑ प्रथ॒मः प॑पौ॒ स च॑कारार॒सं वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒ण: । ज॒ज्ञे॒ । प्र॒थ॒म: । दश॑ऽशीर्ष: । दश॑ऽआस्य: । स: । सोम॑म् । प्र॒थ॒म: । प॒पौ॒ । स: । च॒का॒र॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणो जज्ञे प्रथमो दशशीर्षो दशास्यः। स सोमं प्रथमः पपौ स चकारारसं विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मण: । जज्ञे । प्रथम: । दशऽशीर्ष: । दशऽआस्य: । स: । सोमम् । प्रथम: । पपौ । स: । चकार । अरसम् । विषम् ॥६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (ब्राह्मण:) = वेदज्ञान प्राप्त करनेवाला (प्रथमः जज्ञे) = [प्रथ विस्तारे] शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है। (दशशीर्ष:) = धर्म के दसों लक्षणों [धृति-क्षमा-दम-अस्तेय-शौच-इन्द्रियनिग्रह धी-विद्या-सत्य-अक्रोध] के दृष्टिकोण से यह शिखर पर होता है-यही इसके दस शिर होते है। यह (दशास्यः) = दस मुखोवाला-दसों इन्द्रियों से ज्ञान व शक्ति का भोजन करनेवाला होता है। २. (स:) = वह (प्रथमः) = प्रथम स्थान में स्थित [विस्तृत उन्नत शक्तियोंवाला] ब्राह्मण सोम (पपौ) = सोम का पान करता है-वीर्यशक्ति का अपने अन्दर रक्षण करता है और परिणामत: (सः) = वह (विषम्) = विष को (अरसं चकार) = प्रभावशून्य कर देता है-विष को यह निर्वीर्य कर देता है। इसपर विष का प्रभाव नहीं होता। सोमरक्षण से जहाँ शरीर पर विषों का प्रभाव नहीं होता, वहाँ 'ब्राह्मण, दशशीर्ष व दशास्य' बनने से लोगों की विषभरी बातों का इसके मन पर कुप्रभाव नहीं पड़ता।

    भावार्थ -

    हम ज्ञानप्रधान जीवनवाले बनकर लोगों के विषभरे शब्दों से मानस-सन्तुलन को न खोनेवाले बनें। शरीर में सोम का रक्षण करते हुए शरीर में विष का प्रभाव न होने दें।

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