अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
वध्र॑यस्ते खनि॒तारो॒ वध्रि॒स्त्वम॑स्योषधे। वध्रिः॒ स पर्व॑तो गि॒रिर्यतो॑ जा॒तमि॒दं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठवध्र॑य: । ते॒ । ख॒नि॒तार॑: । वध्रि॑: । त्वम् । अ॒सि॒ । ओ॒ष॒धे॒ । वध्रि॑: । स: । पर्व॑त: । गि॒रि: । यत॑: । जा॒तम् । इ॒दम् । वि॒षम् ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
वध्रयस्ते खनितारो वध्रिस्त्वमस्योषधे। वध्रिः स पर्वतो गिरिर्यतो जातमिदं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठवध्रय: । ते । खनितार: । वध्रि: । त्वम् । असि । ओषधे । वध्रि: । स: । पर्वत: । गिरि: । यत: । जातम् । इदम् । विषम् ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
विषय - विष-खनन पर प्रतिबन्ध
पदार्थ -
१. राष्ट्र में उचित नियमों के द्वारा हे (ओषधे!) = विषोपादानभूत ओषधे! (ते खनितार:) = तेरे खोदनेवाले (वधयः) = निर्वीय हो जाएँ-इन कर्मों को करने में इनकी कमर टूट जाए। हे ओषधे! (त्वम्) = तू भी (वधिः असि) = निर्वीर्य हो गई है। २. वास्तव में (सः पर्वतः) = पोवाला-शिलाओं की तहोंवाला (गिरि:) = पर्वत भी (वध्रिः) = निवार्य हो गया है, (यत:) = जिस पर्वत से (इदं विषम्) = यह (विष जातम्) = उत्पन्न होता है।
भावार्थ -
विषौषधों को खोदनेवालों पर प्रतिबन्ध हो। विषोत्पदक पर्वतों पर भी लोगों के आने-जाने पर प्रतिबन्ध हो।
विशेष -
अगले सूक्त का विषय भी यही है। 'गुरुत्मान्' ही ऋषि है |