अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
वारि॒दम्वा॑रयातै वर॒णाव॑त्या॒मधि॑। तत्रा॒मृत॒स्यासि॑क्तं॒ तेना॑ ते वारये वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठवा: । इ॒दम् । वा॒र॒या॒तै॒ । व॒र॒णऽव॑त्याम् । अधि॑ । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । आऽसि॑क्तम् । तेन॑ । ते॒ । वा॒र॒ये॒ । वि॒षम् ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वारिदम्वारयातै वरणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठवा: । इदम् । वारयातै । वरणऽवत्याम् । अधि । तत्र । अमृतस्य । आऽसिक्तम् । तेन । ते । वारये । विषम् ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
विषय - वरणावत्याम् अधि
पदार्थ -
१. (इदम्) = यह (वा:) = जल (वारयातै) = विष का निवारण करता है, जो (वरणावत्याम् अधि) = उस नदी में है, जो वरण-वृक्षोंवाली है। जिस नदी के किनारे वरण-वृक्ष हों, उस नदी का जल विषनिवारक गुणों से युक्त होता है। २. (तत्र) = वहाँ उस वरण-वृक्षवाली नदी में (अमृतस्य आसक्तिम्) = अमृत का आसेचन होता है। वरण वृक्ष के पत्तों व फूलों आदि में जो रस है, वह नदी के जल को विष-निवारक औषथ-सा बना देता है। (तेन) = उससे (ते विषम्) = तेरे विष को वारये दूर करता है।
भावार्थ -
घर व ग्रामों में जलों के किनारे वरण-वृक्षों का रोपण करना चाहिए, इनसे उन जलों में विष-निवारणशक्ति उत्पन्न हो जाएगी। ये जल हमें नीरोग बनाएँगे।
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