अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
क॑र॒म्भं कृ॒त्वा ति॒र्यं॑ पीबस्पा॒कमु॑दार॒थिम्। क्षु॒धा किल॑ त्वा दुष्टनो जक्षि॒वान्त्स न रू॑रुपः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒र॒म्भम् । कृ॒त्वा । ति॒र्य᳡म् । पी॒ब॒:ऽपा॒कम् । उ॒दा॒र॒थिम् । क्षु॒धा । किल॑ । त्वा॒ । दु॒स्त॒नो॒ इति॑ दु:ऽतनो । ज॒क्षि॒ऽवान् । स: । न । रू॒रु॒प॒: ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
करम्भं कृत्वा तिर्यं पीबस्पाकमुदारथिम्। क्षुधा किल त्वा दुष्टनो जक्षिवान्त्स न रूरुपः ॥
स्वर रहित पद पाठकरम्भम् । कृत्वा । तिर्यम् । पीब:ऽपाकम् । उदारथिम् । क्षुधा । किल । त्वा । दुस्तनो इति दु:ऽतनो । जक्षिऽवान् । स: । न । रूरुप: ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
विषय - 'तिर्य, पीबस्पाक उदारथि' करम्भ
पदार्थ -
१.(तिर्यम्) = विष के प्रभाव को तिरोहित करनेवाले, (पीबस्पाकम्) = चरबी का ठीक से पाचन कर देनेवाले (उदारथिम्) = विषप्रभाव को दूर करके इन्द्रियों की शक्तियों को प्रकाशयुक्त करनेवाले (करम्भं कृत्वा) = दधिमिश्रित सत्तुओं को बनाकर (क्षुधा) = भूख के अनुसार (किल जक्षिवान्) = निश्चय से इस पुरुष ने खाया है। २. हे (दुष्टनो) = शरीर को दूषित करनेवाले विष ! (त्वा) = तुझे लक्ष्य करके ही इस करम्भ का प्रयोग किया गया है। (स:) = वह तू इस करम्भ-प्रयोग को न (रुरूमः) = मूल [मूर्छित] नहीं बनता।
भावार्थ -
दधिमिश्रित सत्तु विषप्रभाव को दूर करते हैं, शरीर में चरबी का ठीक से पाचन करते हैं, इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करके उन्हें प्रकाशमय करते हैं। इनका प्रयोग होने पर ये शरीर को विषमूढ़ नहीं होने देते। ये शरीर से विषैले प्रभाव को हटाते हैं।
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