अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
परि॒ ग्राम॑मि॒वाचि॑तं॒ वच॑सा स्थापयामसि। तिष्ठा॑ वृ॒क्ष इ॑व॒ स्थाम्न्यभ्रि॑खाते॒ न रू॑रुपः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । ग्राम॑म्ऽइव । आऽचि॑तम् । वच॑सा । स्था॒प॒या॒म॒सि॒ । तिष्ठ॑ । वृ॒क्ष:ऽइ॑व । स्थाम्नि॑ । अभ्रि॑ऽखाते । न । रू॒रु॒प॒:। ७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ग्राममिवाचितं वचसा स्थापयामसि। तिष्ठा वृक्ष इव स्थाम्न्यभ्रिखाते न रूरुपः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । ग्रामम्ऽइव । आऽचितम् । वचसा । स्थापयामसि । तिष्ठ । वृक्ष:ऽइव । स्थाम्नि । अभ्रिऽखाते । न । रूरुप:। ७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
विषय - स्थाम्नि तिष्ठ
पदार्थ -
१. (ग्रामम् इव) = ग्राम के समान-जनसमूह के समान (आचितम्) = उपचित हुए-हुए इस विष को (वचसा) = बच ओषधि के प्रयोग से (परिस्थापयामसि) = अन्यत्र स्थापित करते हैं, अर्थात् दूर करते हैं। २. हे (अभ्रिखाते) = कुदाल से खोदी गई ओषधे! तू (वृक्षः इव)-वृक्ष की भांति (स्थाम्नि)-स्थिरता में तिष्ठ-स्थित हो, अपने स्थान पर वृक्ष की भाँति निश्चल होकर ठहर । तू शरीर में व्याप्त मत हो। (रुरूमः) = तु शरीर को मूढ़ मत बना। वच के प्रयोग से गतमन्त्र की "मदावती' का प्रभाव सीमित [localised] हो जाता है।
विशेष -
विष के बढ़ते प्रभाव को हम वच के प्रयोग से सीमित कर देते हैं।