अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
ये अपी॑ष॒न्ये अदि॑ह॒न्य आस्य॒न्ये अ॒वासृ॑जन्। सर्वे॑ ते॒ वध्र॑यः कृ॒ता वध्रि॑र्विषगि॒रिः कृ॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठये । अपी॑षन् । ये । अदि॑हन् । ये । आस्य॑न् । ये । अ॒व॒ऽअसृ॑जन् । सर्वे॑ । ते । वध्र॑य: । कृ॒ता: । वध्रि॑: । वि॒ष॒ऽगि॒रि: । कृ॒त: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अपीषन्ये अदिहन्य आस्यन्ये अवासृजन्। सर्वे ते वध्रयः कृता वध्रिर्विषगिरिः कृतः ॥
स्वर रहित पद पाठये । अपीषन् । ये । अदिहन् । ये । आस्यन् । ये । अवऽअसृजन् । सर्वे । ते । वध्रय: । कृता: । वध्रि: । विषऽगिरि: । कृत: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
विषय - विषदाताओं को दण्डित करना
पदार्थ -
१. (ये) = जो लोग (अपीषन्) = विषोपादान औषध को पीसकर देते हैं, (ये) = जो लोग (अदिहन) = इस विष का लेप करते हैं, (ये आस्यन्) = जो विष को दूर से शरीर पर फेंकते हैं-ऐसिड आदि डाल देते हैं, (ये अवासृजन) = जो समीपस्थ होते हुए अन्न-पान आदि में विष मिला देते हैं, (ते सर्वे) = वे सब (बध्रयः कृता:) = उचित दण्ड-व्यवस्था के द्वारा निर्वीर्य किये जाते हैं। राजा इन्हें दण्डित करता हुआ इन पापों से रोकता है २. (विषगिरिः) = कन्दमूल आदि के विष का उत्पत्तिहेतुभत पर्वत भी (वध्रिः कृत:) = निवार्य किया गया है। ऐसे पर्वतों पर भी राजा सामान्य लोगों के आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगाता है, तब उस पर्वत के कन्दमूल आदि का दुरुपयोग नहीं हो पाता।
भावार्थ -
राजा विविध प्रकार से विष देनेवालों को दण्डित करे। विषोत्पत्ति स्थानों पर सामान्य लोगों के आने-जाने को निषिद्ध कर दे।
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