अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
श॒ल्याद्वि॒षं निर॑वोचं॒ प्राञ्ज॑नादु॒त प॑र्ण॒धेः। अ॑पा॒ष्ठाच्छृङ्गा॒त्कुल्म॑ला॒न्निर॑वोचम॒हं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒ल्यात् । वि॒षम् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । प्र॒ऽअञ्ज॑नात् । उ॒त । प॒र्ण॒ऽधे: । अ॒पा॒ष्ठात् । शृङ्गा॑त् । कुल्म॑लात् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । अ॒हम् । वि॒षम् ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
शल्याद्विषं निरवोचं प्राञ्जनादुत पर्णधेः। अपाष्ठाच्छृङ्गात्कुल्मलान्निरवोचमहं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठशल्यात् । विषम् । नि: । अवोचम् । प्रऽअञ्जनात् । उत । पर्णऽधे: । अपाष्ठात् । शृङ्गात् । कुल्मलात् । नि: । अवोचम् । अहम् । विषम् ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
विषय - विष को मन्त्रयुक्त औषध से दूर करना
पदार्थ -
१. (शल्यात्) = बाण के अयोमय अग्रभाग से होनेवाले (विषम्) = विष को (निरवोचम्) = मैंने मन्त्रयुक्त [विचारपूर्वक प्रयुक्त] औषध से निकाल दिया है, इसी प्रकार (प्राञ्जनात्) = किसी वस्तु के प्रलेप से होनेवाले विष को मैंने दूर किया है। २. (अपाष्ठात्) = बाण की नोक से-किसी नुकीले कील आदि से होनेवाले विष को मैंने दूर किया है। इसीप्रकार (शृंगात्) = किसी पशु के सींग से होनेवाले विष को तथा (कुल्मलात्) = कुत्सित प्राणिमल से उद्भूत विष को मैं मन्त्रयुक्त औषध से दूर करता हूँ।
भावार्थ -
विविध कारणों से उत्पन्न होनेवाले विष को एक सवैद्य मन्त्रयुक्त औषध से दूर करे।
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