अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - यवमध्यात्रिपदागायत्री
सूक्तम् - आत्मा रक्षा सूक्त
अ॑श्मव॒र्म मे॑ऽसि॒ यो मो॒र्ध्वाया॑ दि॒शोऽघा॒युर॑भि॒दासा॑त्। ए॒तत्स ऋ॑च्छात् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्म॒ऽव॒र्म । मे॒ । अ॒सि॒ । य: । मा॒ । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । अ॒घ॒ऽयु: । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । ए॒तत् । स:। ऋ॒च्छा॒त् ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्मवर्म मेऽसि यो मोर्ध्वाया दिशोऽघायुरभिदासात्। एतत्स ऋच्छात् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्मऽवर्म । मे । असि । य: । मा । ऊर्ध्वाया: । दिश: । अघऽयु: । अभिऽदासात् । एतत् । स:। ऋच्छात् ॥१०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
विषय - अघायु से किया गया अघ उसे ही प्राप्त हो
पदार्थ -
१. साधक कहता है कि हे ब्रह्म [प्रभो]! आप (मे) = मेरे (अश्मवर्म असि) = पत्थर के [सुदढ़] कवच हैं-(बह्मवर्म ममान्तरम्)। आपसे (रक्षित मा) = मुझे (यः) = जो (अघायु:) = अघ-[अशुभ, पाप] की कामनावाला (प्राच्या: दिश:) = पूर्व दिशा की ओर से, (दक्षिणायाः दिश:) = दक्षिण दिशा की ओर से, (प्रतीच्याः दिश:) = पश्चिम दिशा की ओर से (उदीच्या: दिश:) = उत्तर दिशा की और से, (ध्रुवाया: दिश:) = धूवा दिशा की ओर से, (ऊर्ध्वया: दिश:) = ऊवा दिक की ओर से तथा दिशाम (अन्तर्देशेभ्य:) = दिशाओं के अन्तर्देशों से (अभिदासात्) = आक्रमण करके उपक्षीण करना चाहता है, (एतत्) = इस अघ को-इस उपक्षय को (सः ऋच्छात्) = वह स्वयं प्राप्त हो। २. हमारे ब्रह्म-कवच से टकराकर यह अघ उस अघायु को ही पुन: प्राप्त हो। यह अघायु हमें हानि न पहुँचा सके। उसके क्रोध को हम अक्रोध से जीतनेवाले बनें, उसके आकाशों को कुशल शब्दों से पराजित करनेवाले हों।
भावार्थ -
हम ब्रह्म को अपना कवच बनाकर चलें। उस समय जो कोई भी अघायु पुरुष हमारे प्रति पाप करेगा, वह पाप लौटकर उसे ही व्यथित करेगा।