अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - पुरोधृत्यनुष्टुब्गर्भा पराष्टित्र्यवसाना चतुष्पदातिजगती
सूक्तम् - आत्मा रक्षा सूक्त
बृ॑ह॒ता मन॒ उप॑ ह्वये मात॒रिश्व॑ना प्राणापा॒नौ। सूर्या॒च्चक्षु॑र॒न्तरि॑क्षा॒च्छ्रोत्रं॑ पृथि॒व्याः शरी॑रम्। सर॑स्वत्या॒ वाच॒मुप॑ ह्वयामहे मनो॒युजा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒ह॒ता । मन॑: ।उप॑ । ह्व॒ये॒ । मा॒त॒रिश्व॑ना । प्रा॒णा॒पा॒नौ । सूर्या॑त् । चक्षु॑:। अ॒न्तरि॑क्षात् । श्रोत्र॑म् । पृ॒थि॒व्या: । शरी॑रम् । सर॑स्वत्या: । वाच॑म् । उप॑ । ह्व॒या॒म॒हे॒ । म॒न॒:ऽयुजा॑ ॥१०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहता मन उप ह्वये मातरिश्वना प्राणापानौ। सूर्याच्चक्षुरन्तरिक्षाच्छ्रोत्रं पृथिव्याः शरीरम्। सरस्वत्या वाचमुप ह्वयामहे मनोयुजा ॥
स्वर रहित पद पाठबृहता । मन: ।उप । ह्वये । मातरिश्वना । प्राणापानौ । सूर्यात् । चक्षु:। अन्तरिक्षात् । श्रोत्रम् । पृथिव्या: । शरीरम् । सरस्वत्या: । वाचम् । उप । ह्वयामहे । मन:ऽयुजा ॥१०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 10; मन्त्र » 8
विषय - 'मनोयुजा सरस्वत्या' वाचम् [ उपह्वयामहे]
पदार्थ -
१. मैं (बृहता) = महत्तत्त्व से (मनः उपह्वये) = मन को पुकारता है। महत्तत्त्व से प्राप्त होनेवाला मेरा यह मन भी महान् हो। (मातरिश्वना) = वायु से मैं (प्राणापानौ) = प्राणापान को माँगता हूँ। मेरे प्राणापान बायु की भाँति निरन्तर गतिशील हो। २. (सूर्यात् चक्षुः) = सूर्य से मैं चक्षु माँगता हूँ। सूर्याभिमुख होकर ध्यान करने से मेरी दृष्टिशक्ति ठीक बनी रहे। (अन्तरिक्षात् श्रोत्रम्) = अन्तरिक्ष से मुझे श्रोत्रशक्ति प्राप्त हो। (पृथिव्याः शरीरम्) = पृथिवि से मुझे शरीर मिले। अन्तरिक्ष-'अन्तरिक्ष' मध्यमार्ग में चलने से श्रोत्रशक्ति ठीक बनी रहे। पृथिवी के सम्पर्क में मेरा शरीर सुदृढ़ रहे। ३. (मनोयुजा) = मन के सम्पर्कवाली (सरस्वत्या) = सरस्वती से हम (वाचम् उपह्वयामहे) = ज्ञान की बाणियों का आराधन करते हैं-मनोयोग से विद्या पढ़ेगें तो ज्ञान बढ़ेगा ही।
भावार्थ -
हमारे शरीर के सब अङ्ग विराट् शरीर के अङ्गों से मेलवाले होकर उत्तम बने रहें। हम मनोयोग द्वारा सरस्वती का आराधन करते हुए ज्ञान को बढ़ाएँ।
विशेष -
प्रत्येक अङ्ग में सुस्थिर ब्रह्मा 'अथर्वा' बनता है। आत्म-निरीक्षण करता हुआ यह एक-एक अङ्ग को उत्तम बनाता है। [अथ अर्वा] यह आत्मनिरीक्षक 'अथर्वा' अगले सूक्त का ऋषि है।