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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त

    क॒थं म॒हे असु॑रायाब्रवीरि॒ह क॒थं पि॒त्रे हर॑ये त्वे॒षनृ॑म्णः। पृश्निं॑ वरुण॒ दक्षि॑णां ददा॒वान्पुन॑र्मघ॒ त्वं मन॑साचिकित्सीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒थम् । म॒हे । असु॑राय । अ॒ब्र॒वी॒: । इ॒ह । क॒थम् । पि॒त्रे । हर॑ये । त्वे॒षऽनृ॑म्ण: ।पृश्नि॑म् । व॒रु॒ण॒ । दक्षि॑णाम् ।द॒दा॒वान् । पुन॑:ऽमघ । त्वम् । मन॑सा । अ॒चि॒कि॒त्सी॒: ॥११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कथं महे असुरायाब्रवीरिह कथं पित्रे हरये त्वेषनृम्णः। पृश्निं वरुण दक्षिणां ददावान्पुनर्मघ त्वं मनसाचिकित्सीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कथम् । महे । असुराय । अब्रवी: । इह । कथम् । पित्रे । हरये । त्वेषऽनृम्ण: ।पृश्निम् । वरुण । दक्षिणाम् ।ददावान् । पुन:ऽमघ । त्वम् । मनसा । अचिकित्सी: ॥११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (कथम्) = कैसे (महे) = पूजा की वृत्तिवाले (असुराय) = प्राणायाम द्वारा अपने में प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले उपासक के लिए (इह) = यहाँ (अब्रवी:) = आप उपदेश करते हैं। (कथम्) = कैसे आप (पित्रे) = सबका पालन करनेवाले (हरये) = दुःखो का हरण करनेवाले पुरुष के लिए वेदज्ञान को उपदिष्ट करते हैं। आप सचमुच (त्वेषनम्ण:) = दीस तेजवाले हैं। २. हे वरुण-सब कष्टों का निवारण करनेवाले प्रभो! आप (पृश्निम्) = इस सम्पूर्ण प्राकृतिक धन व वेदज्ञान को (दक्षिणां ददावान) = जीव के लिए दक्षिणारूप से देते हैं। हे (पुनर्मघ) = पुन:-पुनः ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (मनसा अचिकित्सी:) = मन से-हृदयस्थरूप से हमें ज्ञान देते हैं [कित-to know, चिकिति]।

    भावार्थ -

    हम पूजा की वृत्तिवाले, प्राणायाम द्वारा प्राण-साधना करनेवाले, रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त व दु:खों का हरण करनेवाले बनें। वे दीसतेज प्रभु हदयस्थ होकर हमें ज्ञान देंगे। वे प्रभु उपासक को दक्षिणारूप में वेदज्ञान देते हैं।

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