अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
न त्वद॒न्यः क॒वित॑रो॒ न मे॒धया॒ धीर॑तरो वरुण स्वधावन्। त्वं ता विश्वा॒ भुव॑नानि वेत्थ॒ स चि॒न्नु त्वज्जनो॑ मा॒यी बि॑भाय ॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वत् । अ॒न्य: । क॒विऽत॑र: । न । मे॒धया॑ । धीर॑ऽतर: । व॒रु॒ण॒ । स्व॒धा॒ऽव॒न् । त्वम् । ता । विश्वा॑ । भुव॑नानि । वे॒त्थ॒ । स: । चि॒त् । नु । त्वत् । जन॑: । मा॒यी। बि॒भा॒य॒ ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वदन्यः कवितरो न मेधया धीरतरो वरुण स्वधावन्। त्वं ता विश्वा भुवनानि वेत्थ स चिन्नु त्वज्जनो मायी बिभाय ॥
स्वर रहित पद पाठन । त्वत् । अन्य: । कविऽतर: । न । मेधया । धीरऽतर: । वरुण । स्वधाऽवन् । त्वम् । ता । विश्वा । भुवनानि । वेत्थ । स: । चित् । नु । त्वत् । जन: । मायी। बिभाय ॥११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
विषय - कवितरः, धीरतरः
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का उपासक प्रभु की उपासना करता हुआ कहता है कि हे प्रभो! (त्वत् अन्यः कवितर: न) = आपसे भिन्न कोई अधिक ज्ञानी नहीं है। हे (स्वधावन्) = आत्मधारण-शक्तिवाले (वरुण) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाले प्रभो! (न मेधया धीरतरः) = न ही कोई और बुद्धि के दृष्टिकोण से आपसे अधिक धीर है। आप ही सर्वाधिक बुद्धि-सम्पन्न हैं। आप ही उपासकों को बुद्धि प्राप्त कराते हैं। २. (त्वम्) = आप तो (विश्वा भुवनानि) = सब लोकों को (वेत्थ) = जानते हैं आप सर्वज्ञ हैं। (सः) = वह (मायी जन:) = मायावी-छल-छिद्र-पटु पुरुष (नु चित्) = निश्चय से (त्वत्) = आपसे (बिभाय) = भयभीत होता है।
भावार्थ -
प्रभु कवितर है, धीरतर है। उस सर्वज्ञ प्रभु से मायावी अपनी माया को छिपा नहीं पाता और अन्ततः भयभीत होता है।
सूचना -
माया का अर्थ प्रज्ञा भी है। प्रज्ञावान् पुरुष प्रभु को सर्वज्ञरूप में देखता है, अतः हृदय में उसका भय मानता है। यह भय ही उसे पाप से बचाता है।
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