अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त
एकं॒ रज॑स ए॒ना प॒रो अ॒न्यदस्त्ये॒ना प॒र एके॑न दु॒र्णशं॑ चिद॒र्वाक्। तत्ते॑ वि॒द्वान्व॑रुण॒ प्र ब्र॑वीम्य॒धोव॑चसः प॒णयो॑ भवन्तु नी॒चैर्दा॒सा उप॑ सर्पन्तु॒ भूमि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑म् । रज॑स: । ए॒ना । प॒र: । अ॒न्यत् । अस्ति॑ । ए॒ना । प॒र: । एके॑न । दु॒:ऽनश॑म् । चि॒त् । अ॒वाक् । तत् । ते॒ । वि॒द्वान् । व॒रु॒ण॒ । प्र । ब्र॒वी॒मि॒ । अ॒ध:ऽव॑चस: । प॒णय॑: । भ॒व॒न्तु॒ । नी॒चै: । दा॒सा: । उप॑ । स॒र्प॒न्तु॒ । भूमि॑म् ॥११.६॥
स्वर रहित मन्त्र
एकं रजस एना परो अन्यदस्त्येना पर एकेन दुर्णशं चिदर्वाक्। तत्ते विद्वान्वरुण प्र ब्रवीम्यधोवचसः पणयो भवन्तु नीचैर्दासा उप सर्पन्तु भूमिम् ॥
स्वर रहित पद पाठएकम् । रजस: । एना । पर: । अन्यत् । अस्ति । एना । पर: । एकेन । दु:ऽनशम् । चित् । अवाक् । तत् । ते । विद्वान् । वरुण । प्र । ब्रवीमि । अध:ऽवचस: । पणय: । भवन्तु । नीचै: । दासा: । उप । सर्पन्तु । भूमिम् ॥११.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
पदार्थ -
१. (एना रजसः परः एकम् अन्यत् अस्ति) = इस लोकसमूह से परे [सूक्ष्म] एक अन्य [विलक्षण] सूक्ष्म प्रकृतितत्व है। (एना एकेन पर:) = इस एक प्रकृतितत्त्व से भी परे [सूक्ष्म] (दुर्णशम्) = कठिनता से अदृष्ट होने योग्य, अर्थात् जिसकी महिमा इस ब्रह्माण्ड के एक-एक कण में सर्वत्र दीखती है, वह (चित्)- = र्वज्ञ, चेतनस्वरूप प्रभु है, जोकि (अर्वाक्) = हमारे अन्दर ही स्थित है। २. हे (वरुण) = सब पापों के निवारक प्रभो! (ते) = आपके विषय में (तत् विद्वान्) = इस बात को जानता हुआ में (प्रब्रवीमि) = यह प्रार्थना करता हूँ कि (पणय:) = हमारे समाज में पणि लोग-केवल व्यवहारी लोग-रुपया कमाने में ही लगे हुए लोग (अधोवचसः भवन्तु) = निम्न वचनवाले हों इनकी बातें प्रमुखता को धारण किये न हों, अर्थात् हमारा राष्ट्र बनियों के हाथों में न हो तथा (दासः) = उपक्षय करनेवाले लोग तो (नीचैः भूमिम् उपसर्पन्तु) = भूमि के नीचे बनी जेलों में गतिवाले हों। अथवा उन्हें इसप्रकार दण्ड दिया जाए कि उन्हें इधर-उधर जाते हुए लज्जा अनुभव हो।
भावार्थ -
प्रकृति से भी पर उस सूक्ष्म प्रभु को हम अपने अन्दर देखने के लिए यत्नशील हों, उस प्रभु को जिसकी महिमा कण-कण में दिखाई देती है। उस प्रभु को देखते हुए हम वणिक्वृत्ति से ऊपर उठें, केवल धन कामने में न लगे रहें और विनाश की वृत्तिवाले तो कभी भी न हों।
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