अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
स॒त्यम॒हं ग॑भी॒रः काव्ये॑न स॒त्यं जा॒तेना॑स्मि जा॒तवे॑दाः। न मे॑ दा॒सो नार्यो॑ महि॒त्वा व्र॒तं मी॑माय॒ यद॒हं ध॑रि॒ष्ये ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । अ॒हम् ।ग॒भी॒र: । काव्ये॑न । स॒त्यम् । जा॒तेन॑ । अ॒स्मि॒ । जा॒तऽवे॑दा: । न । मे॒ । दा॒स: । न । आर्य॑: । म॒हि॒ऽत्वा । व्र॒तम् । मी॒मा॒य॒ । यत् । अ॒हम् । ध॒रि॒ष्ये ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यमहं गभीरः काव्येन सत्यं जातेनास्मि जातवेदाः। न मे दासो नार्यो महित्वा व्रतं मीमाय यदहं धरिष्ये ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । अहम् ।गभीर: । काव्येन । सत्यम् । जातेन । अस्मि । जातऽवेदा: । न । मे । दास: । न । आर्य: । महिऽत्वा । व्रतम् । मीमाय । यत् । अहम् । धरिष्ये ॥११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
विषय - वा न दासः, न आर्यः [न अर्यः]
पदार्थ -
१. वेद का ज्ञान होने पर उपासक अनुभव करता है कि (अहम्) = मैं (सत्यम्) = सचमुच (काव्येन) = इस वेदरूप काव्य से (गभीर:) = कुछ गम्भीर वृत्ति का बना हूँ। (सत्यम्) = सचमुच (जातेन) = प्रादुर्भूत हुए-हुए इस वेदकाव्य से मैं (जातवेदा:) = प्रादुर्भूत ज्ञानवाला (अस्मि) = हुआ हूँ। २. अब गम्भीर बनकर व ज्ञान प्राप्त करके (यत् व्रतं अहं धरिष्ये) = जिस व्रत को मैं धारण करूँगा वह (महित्वा) = उस प्रभुपूजन के दृष्टिकोण से ही होगा। मैं वेदानुकूल कार्य करता हुआ प्रभु का उपासन करूंगा। (में) = मेरे उस व्रत को (न दासः) = न कोई उपक्षय की वृत्तिवाला पुरुष और (न अर्यः) = न कोई धनी वैश्य (मीमाय) = हिंसित करनेवाला होगा, अर्थात् भयों व प्रलोभनों से मैं कर्त्तव्यमार्ग से विचलित न होऊँगा।
भावार्थ -
वेदज्ञान मनुष्य को गम्भौर व समझदार बनाता है। इस ज्ञान से गम्भीर व समझदार बनकर जिस व्रत को यह धारण करता है, उस व्रत से इसे किसी प्रकार के भय व प्रलोभन विचलित नहीं कर पाते।
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