अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
स॒मा नौ॒ बन्धु॑र्वरुण स॒मा जा वेदा॒हं तद्यन्ना॑वे॒षा स॒मा जा। ददा॑मि॒ तद्यत्ते॒ अद॑त्तो॒ अस्मि॒ युज्य॑स्ते स॒प्तप॑दः॒ सखा॑स्मि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा । नौ॒ । बन्धु॑: । व॒रु॒ण॒ । स॒मा । जा । वेद॑ । अ॒हम् ।तत् । यत् । नौ॒ । ए॒षा । स॒मा । जा । ददा॑मि । तत् । यत् । ते॒ । अद॑त्त: । अस्मि॑ । युज्य॑: । ते॒ । स॒प्तऽप॑द: । सखा॑ । अ॒स्मि॒ ॥११.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
समा नौ बन्धुर्वरुण समा जा वेदाहं तद्यन्नावेषा समा जा। ददामि तद्यत्ते अदत्तो अस्मि युज्यस्ते सप्तपदः सखास्मि ॥
स्वर रहित पद पाठसमा । नौ । बन्धु: । वरुण । समा । जा । वेद । अहम् ।तत् । यत् । नौ । एषा । समा । जा । ददामि । तत् । यत् । ते । अदत्त: । अस्मि । युज्य: । ते । सप्तऽपद: । सखा । अस्मि ॥११.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
विषय - युज्यः सखा
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वरुण) = अपने से सब दोषों को दूर करनेवाले पुरुष । (समा नौ बन्धुः) = हमारी बन्धुता समान है, (समा जा) = हमारा प्रादुर्भाव भी समान है-हमारा दर्शन इकट्ठा ही होता है। (अहं तत् वेद) = मैं इस बात को जानता हूँ (यत्) = कि (नौ) = हम दोनों का (एषा जा) = यह प्रादुर्भाव समा-समान है, अर्थात् आत्मदर्शन के साथ ही परमात्मदर्शन होता है। २. (ते) = तुझे (तत् ददामि) = वह देता हूँ (यत्) = जो (अदत्तः) = आवश्यक पदार्थ तुझे दिया नहीं गया। मैं (ते) = तेरा सदा (युज्य: अस्मि) = साथ रहनेवाला मित्र हूँ। (ते) = तेरा (सप्तपदः सखा अस्मि) = सात पगों से जानने योग्य मित्र हैं। योग-मार्ग में सात मंजिले चल चुकने पर आठवीं मञ्जिल समाधि में जानने योग्य है।
भावार्थ -
प्रभु हमारे बन्धु हैं। आत्मा और परमात्मा का ज्ञान साथ-साथ ही होता है। प्रभु हमें सब आवश्यक पदार्थ देते हैं। वे हमारे 'युग्य सप्तपद' सखा है।
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