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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त
    48

    स॒मा नौ॒ बन्धु॑र्वरुण स॒मा जा वेदा॒हं तद्यन्ना॑वे॒षा स॒मा जा। ददा॑मि॒ तद्यत्ते॒ अद॑त्तो॒ अस्मि॒ युज्य॑स्ते स॒प्तप॑दः॒ सखा॑स्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मा । नौ॒ । बन्धु॑: । व॒रु॒ण॒ । स॒मा । जा । वेद॑ । अ॒हम् ।तत् । यत् । नौ॒ । ए॒षा । स॒मा । जा । ददा॑मि । तत् । यत् । ते॒ । अद॑त्त: । अस्मि॑ । युज्य॑: । ते॒ । स॒प्तऽप॑द: । सखा॑ । अ॒स्मि॒ ॥११.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समा नौ बन्धुर्वरुण समा जा वेदाहं तद्यन्नावेषा समा जा। ददामि तद्यत्ते अदत्तो अस्मि युज्यस्ते सप्तपदः सखास्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समा । नौ । बन्धु: । वरुण । समा । जा । वेद । अहम् ।तत् । यत् । नौ । एषा । समा । जा । ददामि । तत् । यत् । ते । अदत्त: । अस्मि । युज्य: । ते । सप्तऽपद: । सखा । अस्मि ॥११.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे श्रेष्ठ पुरुष ! (नौ) हम दोनों की (बन्धुः) बन्धुता (समा) एक ही है और (जा) जाति भी (समा) एक ही है। (अहम्) मैं (तत्) वह (वेद) जानता हूँ (यत्) जिससे (नौ) हम दोनों की (एषा) यह (जा) उत्पत्ति (समा) एक है। (तत्) वह (ददामि) देता हूँ (यत्) जो (ते) तुझे (अदत्तः) बिना दिये हुए [अस्मि] हूँ। (ते) तेरा (युज्यः) योग्य (सप्तपदः) अधिकार पाये हुए (सखा) सखा (अस्मि) हूँ ॥१०॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष सब मनुष्यों और प्राणियों का अपने समान जानकर प्रीतिपूर्वक उनका हित करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(समा) समाना (नौ) आवयोः (बन्धुः) बन्धुता। स्नेहः (वरुण) हे श्रेष्ठ पुरुष (समा) (जा) जनी−ड टाप्। जातिः। जन्म (वेद) वेद्मि (अहम्) उपासकः (तत्) (यत्) येन (नौ) आवयोः (एषा) (समा) (जा) उत्पत्तिः (ददामि) प्रयच्छामि (तत्) ज्ञानम् (यत्) (ते) तुभ्यम् (अदत्तः) अदत्तवान् (अस्मि) (युज्यः) योग्य (सप्तपदः) म० ९। प्राप्ताधिकारः (सखा) सुहृत् (अस्मि) ॥

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    विषय

    युज्यः सखा

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वरुण) = अपने से सब दोषों को दूर करनेवाले पुरुष । (समा नौ बन्धुः) = हमारी बन्धुता समान है, (समा जा) = हमारा प्रादुर्भाव भी समान है-हमारा दर्शन इकट्ठा ही होता है। (अहं तत् वेद) = मैं इस बात को जानता हूँ (यत्) = कि (नौ) = हम दोनों का (एषा जा) = यह प्रादुर्भाव समा-समान है, अर्थात् आत्मदर्शन के साथ ही परमात्मदर्शन होता है। २. (ते) = तुझे (तत् ददामि) = वह देता हूँ (यत्) = जो (अदत्तः) = आवश्यक पदार्थ तुझे दिया नहीं गया। मैं (ते) = तेरा सदा (युज्य: अस्मि) = साथ रहनेवाला मित्र हूँ। (ते) = तेरा (सप्तपदः सखा अस्मि) = सात पगों से जानने योग्य मित्र हैं। योग-मार्ग में सात मंजिले चल चुकने पर आठवीं मञ्जिल समाधि में जानने योग्य है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे बन्धु हैं। आत्मा और परमात्मा का ज्ञान साथ-साथ ही होता है। प्रभु हमें सब आवश्यक पदार्थ देते हैं। वे हमारे 'युग्य सप्तपद' सखा है।

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    भाषार्थ

    (नौ) हम दोनों की (बन्धु:) बन्धुता (समा) एक-सदृश है ( वरुण ) हे वरुण ! और हम दोनों की (जा) उत्पत्ति भी (समा) एक सदृश है; (अहम् ) मैं (वेद) जानता हूं ( तत् ) उसे ( यत् ) जोकि ( नौ) हम दोनों की (एषा जा) यह उत्पत्ति (समा) एक-सदृश है। (ददामि) अतः मैं देता हूँ (तत्) वह (यत् ) जो (ते) तुझे (अदत्तः अस्मि ) मैंने नहीं दिया, (सप्तपदः) सात पदोंवाला (युज्यः) योग्य (सखा) सखा (ते ) तेरा ( अस्मि) में हूँ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के प्रथमार्ध के प्रथम पाद में अथर्वा की उक्ति वरुण के प्रति है, और अवशिष्ट तीन पादों में वरुण की उक्ति अथर्वा के प्रति है। अथर्वा और वरुण में बन्धुता एक-सदृश है। अथर्वा वरुण का सखा है और वरुण अथर्वा का सखा है। सखित्वभाव में दोनों समान हैं, एक-सदृश हैं (मन्त्र है, ९,१०)। इन दोनों की उत्पत्ति भी समा है, समान है, एक-सदृश है। दोनों हृदयवासी हैं, दोनों की स्वरूपाभिव्यक्ति हृदय में होती है। अथर्वा वरुण को स्वरूपाभिव्यक्ति में, वरुण के स्वरूप का दर्शन पा लेता है। यह दर्शन ही अभी तक वरुण ने नहीं दिया था [अदत्तः ], जिसे कि वरुण ने अब अथर्वा को दे दिया है [ददामि]। इस प्रकार वरुण ने निज सखित्व को सार्थक किया है। 'सप्तपदः' का अभिप्राय पूर्ववत् है (मन्त्र ९)।] युज्यः =अथवा इसका अभिप्राय है "जुता हुआ"। संसार-शकट के वहन में वरुण और अथर्वा [ जीवात्मा] साथ-साथ जुते हुए हैं, वरुण कर्तृरूप में संसार का वहन कर रहा है, अथर्वा भोक्तृरूप में। जीवात्माएँ न हों तो वरुण किसके लिए संसार को रचे और उसका वहन करे?]

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    विषय

    ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे वरुण राजन् ! (नौ) हम दोनों की (समा बन्धुः) समान ही बन्धुता है। और अपने दोनों की (जा) जाति और रूप को मैं (समा वेद) समान ही जानता हूं। (तत् यत् नौ एषा समा जा) तो क्योंकि हम दोनों की समान जाति है अतः (यत् ते अदत्तः) अभी तक जो पदार्थ मैंने तुझे नहीं सौंपा (तद् ददामि) उसे भी मैं समर्पित करता हूं। (ते युज्यः सप्तपदः सखा अस्मि) मैं तेरे सदा संग रहने वाला, या योग समाधि से गम्य, सप्त शीर्षण्य प्राणों के संयम से जानने योग्य ‘सप्तपद सखा’ अर्थात् परममित्र हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lord Supreme

    Meaning

    “O Varuna, our kinship and fraternity is equal and constant, our nature and manifestation in the world is equal and constant. I also know how this kinship and nature is equal and constant. I now offer and surrender to you what I have not so far offered and surrendered to you. I am a companion, with you and at your service. I am your friend and I would join you at seven steps from here.

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    Translation

    O venerable Lord, one and same is the connecting bond between both of us; same is our origin. I know well about this common origin of both of us. I give you what was not given as yet. I am suited to you. I am your trusted friend having walked seven steps along with you.

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    Translation

    Says the Supreme Being—O Varuna, the faithful devotee! Our Bandhu, the bond which unite us i.e. the relation of jicea and Ishwar as son and father) is one, the Origin, i.e. eternality of us is one, I know the nature of the Kinship between us, I give you the gift which I did not give you till now. I am your ever firm friend and I am the friend who reveals the Vedic speech of seven meters.

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    Translation

    One origin, O God, one bond unites us. I know the nature of that common kinship. I give thee the gift that I retracted. I am thy friend for ever firm and faithful.

    Footnote

    Varuna speaks the second hemistich. Both God and soul are immortal, the same in this aspect. They are related to each other. God is infinite, the soul is finite. God is All pervading, the soul resides in one place. God is Omniscient, soul's knowledge is limited.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(समा) समाना (नौ) आवयोः (बन्धुः) बन्धुता। स्नेहः (वरुण) हे श्रेष्ठ पुरुष (समा) (जा) जनी−ड टाप्। जातिः। जन्म (वेद) वेद्मि (अहम्) उपासकः (तत्) (यत्) येन (नौ) आवयोः (एषा) (समा) (जा) उत्पत्तिः (ददामि) प्रयच्छामि (तत्) ज्ञानम् (यत्) (ते) तुभ्यम् (अदत्तः) अदत्तवान् (अस्मि) (युज्यः) योग्य (सप्तपदः) म० ९। प्राप्ताधिकारः (सखा) सुहृत् (अस्मि) ॥

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