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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त
    46

    त्वं ह्यङ्ग व॑रुण॒ ब्रवी॑षि॒ पुन॑र्मघेष्वव॒द्यानि॒ भूरि॑। मो षु प॒णीँर॑भ्ये॒ताव॑तो भू॒न्मा त्वा॑ वोचन्नरा॒धसं॒ जना॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । अ॒ङ्ग । व॒रु॒ण॒ । ब्रवी॑षि । पुन॑:ऽमघेषु । अ॒व॒द्यानि॑ । भूरि॑ । मो इति॑ । सु । प॒णीन् । अ॒भि । ए॒ताव॑त: । भू॒त् । मा । त्वा॒ । वो॒च॒न् । अ॒रा॒धस॑म् । जना॑स: ॥११.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह्यङ्ग वरुण ब्रवीषि पुनर्मघेष्ववद्यानि भूरि। मो षु पणीँरभ्येतावतो भून्मा त्वा वोचन्नराधसं जनासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । अङ्ग । वरुण । ब्रवीषि । पुन:ऽमघेषु । अवद्यानि । भूरि । मो इति । सु । पणीन् । अभि । एतावत: । भूत् । मा । त्वा । वोचन् । अराधसम् । जनास: ॥११.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अङ्ग) हे (वरुण) वरुण श्रेष्ठ पुरुष ! (त्वम्) तू (हि) ही (पुनर्मघेषु) बार-बार धन देनेवालों के बीच [वर्तमान होकर] (भूरि) बहुत से (अवद्यानि) अनिन्दनीय अर्थात् प्रशंसनीय वचनों को (ब्रवीषि) बोलता है। (एतावतः) इतने (पणीन् अभि) कुव्यवहारी पुरुषों की ओर (सु) अनायास [सहज स्वभाव से] (मो भूत्) कभी मत हो, [जिस से] (जनासः) लोग (त्वा) तुझ को (अराधसम्) अदानी (मा वोचन्) न कहें ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य सत्पुरुषों में उत्तम शिक्षाओं का प्रचार करें, क्योंकि दुष्ट पुरुषों और दुष्ट कर्मों में पड़कर अच्छा मनुष्य भी दोषी हो जाता है ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(त्वम्) (हि) अवश्यम् (अङ्ग) हे वरुण श्रेष्ठ पुरुष (ब्रवीषि) कथयसि (पुनर्मघेषु) म० १। भूयो भूयो धनदातृषु वर्तमानः सन् (अवद्यानि) अव हीने यथा, अवमानम् =अपमानम्। द्यै तिरस्कारे−क। अवगतानि अपगतानि द्यानि तिरस्कारा येषां तानि। अनिन्द्यानि प्रशंसनीयानि वचनानि (भूरि) भूरीणि बहूनि (मो भूत्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। मैव भूः (सु) सुन्दररीत्या (पणीन्) कुव्यवहारिणः पुरुषान् (अभि) अभिलक्ष्य। व्याप्य (एतावतः) एतत्परिमाणान्। पुरोवर्तिनः (मा वोचन्) न कथयन्तु (त्वा) त्वाम् (अराधसम्) नास्ति राधो धनं यस्मात् सोऽराधास्तम्। अधनदातारम्। कृषणम् (जनासः) जनाः ॥

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    विषय

    केवल धन नहीं, निर्धनता भी नहीं

    पदार्थ

    १. हे (अङ्ग) = गतिशील (वरुण) = सब पापों का निवारण करनेवाले प्रभो! (त्वं हि ब्रवीषि) = आप ही हमें वेद में यह बतलाते हैं कि (पुनः मघेषु) = फिर-फिर धन ही कमाने में लगे हुए लोगों में (भूरि) = बहुत (अवद्यानि)  पाप आ जाते हैं। वे टेढ़े-मेढ़े, कुटिल साधनों से धन कमाने में प्रवृत्त हो जाते हैं। आप (एतावत: पणीन् अभि) = इतने बनियों के प्रति (मा उ सुभून) = मत ही हों, अर्थात् न्याय अन्याय सब मार्गों से धन कमाना ही जिनका उद्देश्य हो गया है, उन बनियों को प्राप्त न हों। (जनास:) = लोग (त्वा) = आपको (अराधसम्) = ऐश्वर्यहीन (मा वोचत्) = न कहें, अर्थात् आपका स्तोता कार्यसाधक धन भी न प्रास करे-ऐसी स्थिति न हो। हम आपका स्तवन करते हुए पुरुषार्थ करके न्याय-मार्ग से कार्यसाधक धन को प्राप्त करें ही।

    भावार्थ

    धन-ही-धन जब जीवन का उद्देश्य हो जाता है तब हम पाप की ओर झुक जाते हैं। इन पणियों को प्रभु प्राप्त नहीं होते, परन्तु स्तोता न्याय्य मार्ग से पुरुषार्थ करता हुआ कार्यसाधक धन प्राप्त करता ही है।

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    भाषार्थ

    (ह्यङ्ग वरुण) हे वरुण ! (त्वम् हि) तू ही (पुनर्मघेषु) पुनः- पुनः धर्माभिलाषियों में (भूरि) प्रभूत (अवद्यानि) गर्ह्य अर्थात् निन्दनीय कर्मों की स्थिति (ब्रवीषि) कहता है, परन्तु (एतावतः पणीन्) इन पणियों के (अभि) प्रति (मो षु भूत ) तू पूर्णरूप से [कठोर] नहीं हुआ है, ताकि (जनासः) ये जन (त्वा) तुझे (अराधसम्) निर्धन (मा वोचन् ) न कहें।

    टिप्पणी

    [धन के लोलूप बार-बार निन्दनीय कर्मों को कर, निज स्वार्थ के लिए धनसंग्रह करते रहते हैं, अतः ये निन्दनीय कर्मोवाले होते हैं, तो भी तू इन्हें व्यापार में धन प्रदान करता रहता है, ताकि ये तुझे निर्धन न कहें। गन्त्र (१) में वरुण को भी पुनर्मघ कहा है, परन्तु वरुण की पुनर्मघता निज कामना की पूर्ति के लिए नहीं (मन्त्र २), अपितु प्रजा के सुख के लिए है, परन्तु पणियों की पुनर्मषता केवल स्वार्थ के लिए है। व्यापार से धन प्राप्ति का होते रहना-यह तो वरुण नियम से ही होता है। मा भूत् =मा भूः। अराधसम्= अ+ राध: धननाम (निघं० २।१०) अतः अराधसम्=धनहीनम् निर्धनम् ।

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    विषय

    ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (अङ्ग वरुण) हे राजन् ! (त्वं हि ब्रवीषि) आपका यह उपदेश है कि (पुनः मघेषु) त्याग २ कर पुनः २ धन प्राप्त करने वाले लालची पुरुषों में (भूरि) बहुत से (अवद्यानि) निन्दा योग्य दोष होते हैं। हे वरुण ! (एतावतः पणीन्) इन ऐसे व्यावहारिक पुरुषों की ओर (मो सु अभिभूत्) तू कभी अपने स्वरूप को प्रकट नहीं करता है। (जनासः) लोग (त्वा) तुझे (अराधसं) अराधनीय वा ऐश्वर्यहीन (मा वोचन्) कभी न कहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lord Supreme

    Meaning

    The seeker: “O loving lord of generosity, you yourself say that often many evils creep into the life of those who repeatedly rise to prosperity. Let no such adversity overtake such people of sterile mind. Pray be not too kind to them also, but save them all the same from their sterility. Let not people say that you are unkind.”

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    Translation

    O dear venerable Lord, as you say that there are a lot of vices in those who try to regain: wealth, so may you not become one of these niggards (panis); may not the people call you an ungenerous donor.

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    Translation

    O Varuna (Supreme Being) Thou speakest of the various reproaches of attaining wealth by improper means, Thou does not make you known to such persons who are involved in attaining such wealth, no one among us call Thou illiberal or unworshippable on this ground.

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    Translation

    O dear King, thou preachest, that greedy misers who amass wealth are full of faults worthy of reproach. Be not thou added to that crowd of niggards: so that men may not call thee an illiberal giver.

    Footnote

    Atharvan, the learned person speaks to Varuna, the wealthy king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(त्वम्) (हि) अवश्यम् (अङ्ग) हे वरुण श्रेष्ठ पुरुष (ब्रवीषि) कथयसि (पुनर्मघेषु) म० १। भूयो भूयो धनदातृषु वर्तमानः सन् (अवद्यानि) अव हीने यथा, अवमानम् =अपमानम्। द्यै तिरस्कारे−क। अवगतानि अपगतानि द्यानि तिरस्कारा येषां तानि। अनिन्द्यानि प्रशंसनीयानि वचनानि (भूरि) भूरीणि बहूनि (मो भूत्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। मैव भूः (सु) सुन्दररीत्या (पणीन्) कुव्यवहारिणः पुरुषान् (अभि) अभिलक्ष्य। व्याप्य (एतावतः) एतत्परिमाणान्। पुरोवर्तिनः (मा वोचन्) न कथयन्तु (त्वा) त्वाम् (अराधसम्) नास्ति राधो धनं यस्मात् सोऽराधास्तम्। अधनदातारम्। कृषणम् (जनासः) जनाः ॥

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