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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त
    46

    एकं॒ रज॑स ए॒ना प॒रो अ॒न्यदस्त्ये॒ना प॒र एके॑न दु॒र्णशं॑ चिद॒र्वाक्। तत्ते॑ वि॒द्वान्व॑रुण॒ प्र ब्र॑वीम्य॒धोव॑चसः प॒णयो॑ भवन्तु नी॒चैर्दा॒सा उप॑ सर्पन्तु॒ भूमि॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑म् । रज॑स: । ए॒ना । प॒र: । अ॒न्यत् । अस्ति॑ । ए॒ना । प॒र: । एके॑न । दु॒:ऽनश॑म् । चि॒त् । अ॒वाक् । तत् । ते॒ । वि॒द्वान् । व॒रु॒ण॒ । प्र । ब्र॒वी॒मि॒ । अ॒ध:ऽव॑चस: । प॒णय॑: । भ॒व॒न्तु॒ । नी॒चै: । दा॒सा: । उप॑ । स॒र्प॒न्तु॒ । भूमि॑म् ॥११.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकं रजस एना परो अन्यदस्त्येना पर एकेन दुर्णशं चिदर्वाक्। तत्ते विद्वान्वरुण प्र ब्रवीम्यधोवचसः पणयो भवन्तु नीचैर्दासा उप सर्पन्तु भूमिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकम् । रजस: । एना । पर: । अन्यत् । अस्ति । एना । पर: । एकेन । दु:ऽनशम् । चित् । अवाक् । तत् । ते । विद्वान् । वरुण । प्र । ब्रवीमि । अध:ऽवचस: । पणय: । भवन्तु । नीचै: । दासा: । उप । सर्पन्तु । भूमिम् ॥११.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (एना) इस (रजसः) लोक से (परः) परे (अन्यत्) और कुछ (एकम्) अकेला [ब्रह्म] (अस्ति) है। (एना) इस (एकेन) अकेले ब्रह्म की अपेक्षा (परः) परे (दुर्णशम्) दुष्प्राप्य और (अर्वाक्) पीछे वर्तमान् (चित्) भी [वही है]। (वरुण) हे श्रेष्ठ पुरुष ! (विद्वान्) विद्वान् मैं (ते) तुझको (तत्) वह बात (प्र) अच्छे प्रकार (ब्रवीमि) कहता हूँ। (पणयः) कुव्यवहारी लोग (अधोवचसः) तुच्छ वचनवाले [असत्यवादी] (भवन्तु) होवें। (दासाः) दास अर्थात् शूद्र (नीचैः) नीचे की ओर (भूमिम्) भूमि पर (उप) हीन हो कर (सर्पन्तु) रेंग जावें ॥६॥

    भावार्थ

    वह अकेला अद्भुतमूर्ति परब्रह्म हमारे गोचर और अगोचर पदार्थों से भिन्न है, यह बात बुद्धिमान् लोग जानते हैं, और कुबुद्धि नास्तिक सदा नीचा देखते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म (रजसः) लोकात् (एना) अस्मात् (परः) दूरदेशे (अन्यत्) (अस्ति) (एना) अनेन (परः) दूरदेशे (एकेन) अद्वितीयेन ब्रह्मणा (दुर्णशम्) नशत् व्याप्तिकर्मा−निघ० २।१८। दुष्प्राप्यम् (चित्) अपि (अर्वाक्) अवरदेशभवम्। पश्चाद्वर्तमानम् (तत्) ब्रह्मज्ञानम् (ते) तुभ्यम् (विद्वान्) प्राप्तविद्यः (वरुण) श्रेष्ठ (प्र) प्रकर्षेण (ब्रवीमि) कथयामि (अधोवचसः) अधोगतानि वचांसि येषां ते। असत्यवचनाः (पणयः) कुव्यवहारिणः (भवन्तु) (नीचैः) अधोदेशे (दासाः) शूद्राः। अविद्वांसः (उप) हीने (सर्पन्तु) सर्पणेन गच्छन्तु (भूमिम्) भूतलम् ॥

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    पदार्थ

    १. (एना रजसः परः एकम् अन्यत् अस्ति) = इस लोकसमूह से परे [सूक्ष्म] एक अन्य [विलक्षण] सूक्ष्म प्रकृतितत्व है। (एना एकेन पर:) = इस एक प्रकृतितत्त्व से भी परे [सूक्ष्म] (दुर्णशम्) = कठिनता से अदृष्ट होने योग्य, अर्थात् जिसकी महिमा इस ब्रह्माण्ड के एक-एक कण में सर्वत्र दीखती है, वह (चित्)- = र्वज्ञ, चेतनस्वरूप प्रभु है, जोकि (अर्वाक्) = हमारे अन्दर ही स्थित है। २. हे (वरुण) = सब पापों के निवारक प्रभो! (ते) = आपके विषय में (तत् विद्वान्) = इस बात को जानता हुआ में (प्रब्रवीमि) = यह प्रार्थना करता हूँ कि (पणय:) = हमारे समाज में पणि लोग-केवल व्यवहारी लोग-रुपया कमाने में ही लगे हुए लोग (अधोवचसः भवन्तु) = निम्न वचनवाले हों इनकी बातें प्रमुखता को धारण किये न हों, अर्थात् हमारा राष्ट्र बनियों के हाथों में न हो तथा (दासः) = उपक्षय करनेवाले लोग तो (नीचैः भूमिम् उपसर्पन्तु) = भूमि के नीचे बनी जेलों में गतिवाले हों। अथवा उन्हें इसप्रकार दण्ड दिया जाए कि उन्हें इधर-उधर जाते हुए लज्जा अनुभव हो।

    भावार्थ

    प्रकृति से भी पर उस सूक्ष्म प्रभु को हम अपने अन्दर देखने के लिए यत्नशील हों, उस प्रभु को जिसकी महिमा कण-कण में दिखाई देती है। उस प्रभु को देखते हुए हम वणिक्वृत्ति से ऊपर उठें, केवल धन कामने में न लगे रहें और विनाश की वृत्तिवाले तो कभी भी न हों।

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    भाषार्थ

    (एना रजसः) इस रञ्जक द्युलोक से (परः) परे (एकम् ) एक और तत्त्व (अस्ति) है, तथा (एना एकेन) इस एक से (अर्वाक् चित् ) इधर नीचे की ओर भी (दुर्णशम्) दुष्प्राप्य (परः) परात्१-पर (अस्ति) वह ही एक तत्त्व है। (वरुण) हे वरण करनेवाले या वरणयोग्य परमेश्वर ! (ते) तेरे (तत्) उस [विभु] स्वरूप को ( विद्वान्) जानता हुआ [मैं अथर्वा] (प्रब्रवीमि) प्रार्थना करता हूँ, कि (पणयः) व्यवहारी वणिये (अधोवचसः) तिरस्कृत वचनोंबाले (भवन्तु) हों, ( दासा: ) उपक्षयकारी ये (नीचैः) नीचे की भूमि पर (उप सर्पन्तु) सर्पण करते रहें। अधोवचसः = अधस्कृतवचसः, तिरस्कृतवचसः।

    टिप्पणी

    [एना रजसः=एना रजसा अथवा "एनसः रजसः" पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। इस प्रकार इस पाठ में कवि पठित 'एना" पद सार्थक हो जाता है । मन्त्र में वरुण सम्बुद्धि पद है। अथर्वा अर्थात् निश्चल चित्तवृत्तिक योगी वरुण से प्रार्थना करता है कि व्यवहारी वणिये भी तुमसे उच्चगति पाने की प्रार्थना करेंगे, परन्तु तूने इनके प्रार्थनावचनों को तिरस्कृत कर देना। धन को ही सर्वरव जाननेवाले उच्चगति के अधिकारी नहीं ।] [१. यथा-इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः। महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर:। पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परागतिः। (कठ० उप० १, वल्ली ३३ खं १०।११) में पुरुष को 'परात्-परः' कहा है। वह परमेश्वर नीचे की ओर भी दूर-से-दूर तक व्याप्त है, और कितनी दूर तक नीचे की ओर भी वह व्याप्त है --इस सम्बन्ध में वह दुर्णश है, बुद्धि द्वारा यह जाना नहीं जा सकता। वह दूर-से-दूर है, वह समीप-से-समीप है। वह इस ब्रह्माण्ड के भीतर है और इसके बाहर भी है (यजु:० ४०।५)।]

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    विषय

    ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    उक्त तत्व का रहस्य स्पष्ट करते हैं। (एना रजसः परः) इस समस्त लोक समूह से पर = परम सूक्ष्म पदार्थ (अन्यत्) इससे भिन्नरूप का (एकम् अस्ति) एक परब्रह्म है। (एना एकेन परः) और उस एक से भी अतिरिक्त (अर्वाक् चित्) उससे उतर कर एक सूक्ष्म तत्व प्रकृति है जो ब्रह्म की अपेक्षा स्थूल है और वह भी (दुर्णशम्) विनाश को प्राप्त नहीं होता। हे वरुण ! (ते) तेरे (तत्) उस स्वरूप को (विद्वान्) जानता हुआ मैं (प्र ब्रवीमि) कहता हूं कि (पणयः) लोकव्यवहार में पड़े हुए या अन्य स्तोतागण की (अधोवचसः भवन्तु) वाणियां उस परम तत्व से नीचे ही रह जाती हैं अर्थात् वाणी के गोचर न होने वाले तेरे उस रूप का वे वर्णन नहीं कर सकते। और (दासाः) अज्ञान से अपने ज्ञान का नाश करने वाले लोग (नीचैः भूमिम् उपसर्पन्तु) नीच अवस्था को प्राप्त होकर भूमि पर सरकते रहते हैं। राजा के पक्ष में स्पष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lord Supreme

    Meaning

    Varuna speaks to the seeker: “Of that, I, all knowing Varuna, speak to you. There is one beyond this dynamic expansive universe, that is the transcendent Parama Brahma, and this side of that also, there is one, indestructible, that is Prakrti in the essence. Let the stingy misers be down, poor of speech below the state of knowledge, and let the negatives too creep upon the surface of the earth, never higher than the grass.”

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    Translation

    There is one else beyond this matter (rajas or welkin). That, which is nearer than that distant beyond one, is also difficult to attain. Knowing this well, O venerable Lord, I declare it to you. May the niggards be of suppressed speech. May the slaves behave more humbly on the earth.

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    Translation

    One thing that is beyond this world is matter, the material cause of this world, another thing even beyond this is the soul which is remote in rareness and not within reach of ordinary men. O’ Supreme Being! I knowing Thy matter and should declare that worldly people, become speech-less in this matter of knowing them with you and those who are deprived of spiritual Knowledge and good deeds fall down to lowest level.

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    Translation

    One thing, God, there is beyond this universe. Besides Him, but next to Him is Matter, which is indestructible. O God, I, the Knower of Thy true nature, do declare, that churls fail to depict Thee fully. Unwise, ignorant people, grope in the dark on Earth, in their degraded position.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म (रजसः) लोकात् (एना) अस्मात् (परः) दूरदेशे (अन्यत्) (अस्ति) (एना) अनेन (परः) दूरदेशे (एकेन) अद्वितीयेन ब्रह्मणा (दुर्णशम्) नशत् व्याप्तिकर्मा−निघ० २।१८। दुष्प्राप्यम् (चित्) अपि (अर्वाक्) अवरदेशभवम्। पश्चाद्वर्तमानम् (तत्) ब्रह्मज्ञानम् (ते) तुभ्यम् (विद्वान्) प्राप्तविद्यः (वरुण) श्रेष्ठ (प्र) प्रकर्षेण (ब्रवीमि) कथयामि (अधोवचसः) अधोगतानि वचांसि येषां ते। असत्यवचनाः (पणयः) कुव्यवहारिणः (भवन्तु) (नीचैः) अधोदेशे (दासाः) शूद्राः। अविद्वांसः (उप) हीने (सर्पन्तु) सर्पणेन गच्छन्तु (भूमिम्) भूतलम् ॥

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