अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 9
आ ते॑ स्तो॒त्राण्युद्य॑तानि यन्त्व॒न्तर्विश्वा॑सु॒ मानु॑षीषु दि॒क्षु। दे॒हि नु मे॒ यन्मे॒ अद॑त्तो॒ असि॒ युज्यो॑ मे स॒प्तप॑दः॒ सखा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । स्तो॒त्राणि॑ । उत्ऽय॑तानि । य॒न्तु॒ । अ॒न्त: । विश्वा॑सु । मानु॑षीषु। दि॒क्षु। दे॒हि। नु । मे॒ । यत् । मे॒ । अद॑त्त: । असि॑ । युज्य॑ । मे॒ । स॒प्तऽप॑द: । सखा॑। अ॒सि॒ ॥११.९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते स्तोत्राण्युद्यतानि यन्त्वन्तर्विश्वासु मानुषीषु दिक्षु। देहि नु मे यन्मे अदत्तो असि युज्यो मे सप्तपदः सखासि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । स्तोत्राणि । उत्ऽयतानि । यन्तु । अन्त: । विश्वासु । मानुषीषु। दिक्षु। देहि। नु । मे । यत् । मे । अदत्त: । असि । युज्य । मे । सप्तऽपद: । सखा। असि ॥११.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वन्] (विश्वासु) सब (मानुषीषु) मनुष्यसम्बन्धिनी (दिक्षु अन्तः) दिशाओं के भीतर (ते) तेरे (उद्यतानि) प्रवृत्त किये हुए (स्तोत्राणि) स्तुतियोग्य कर्म (आ यन्तु) प्राप्त हों। (मे) मुझे (नु) निश्चय करके वह (देहि) दे (यत्) जो कुछ (मे) मुझको (अदत्तः असि) तूने नहीं दिया है। (मे) मेरा (युज्यः) योग्य (सप्तपदः) अधिकार पाये हुए (सखा) सखा (असि) तू है ॥९॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष सब मनुष्यों में उत्तम कर्मों का प्रचार करे और विचारपूर्वक सब लोग उससे गुण प्राप्त करें ॥९॥
टिप्पणी
९−(आ यन्तु) आगच्छन्तु (ते) तव (स्तोत्राणि) स्तुत्यानि कर्माणि (उद्यतानि) उद्+यम−क्त। ऊर्ध्वीकृतानि। प्रस्तुतानि (अन्तः) मध्ये (विश्वासु) सर्वासु (मानुषीषु) म० ८। मनुष्यसम्बन्धिनीषु (दिक्षु) दिशासु (देहि) प्रयच्छ (नु) अवश्यम् (मे) मह्यम् (यत्) दानम् (मे) मह्यम् (अदत्तः) नास्ति दत्तं दानं यस्य सः। अदत्तवान् (असि) (युज्यः) युज−क्यप्। योज्यः। अनुरूपः (मे) मम (सप्तपदः) षप समवाये−क्त। सप्तं समवेतं प्राप्तं पदं स्थानं येन सः। प्राप्ताधिकारः। सुदृढः (सखा) मित्रम् (असि) भवसि ॥
विषय
सप्तपदः सखा
पदार्थ
१. हे प्रभो! (विश्वास मानुषीषु दिक्षु अन्त:) = मानवों की निवासभूत सब दिशाओं में (आ) = समन्तात् (ते स्तोत्राणि) = आपके स्तोत्र (उद्यतानि यन्तु) = उद्यत हुए-हुए गतिवाले हों। सब मनुष्य आपका स्तवन करनेवाले बनें। २. (यत् मे अदत्तः) = जो आवश्यक पदार्थ मुझे नहीं दिया गया नु मे देहि निश्चय से वह मुझे दीजिए। (मे युज्य: असि) = आप सदा मेरे साथ रहनेवाले हैं, सप्तपदः सखा असि-आप तो मेरे वे सखा हैं, जिनके साथ मैं सात पग रखता है। 'भू:, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्याम् स्वस्थ ,ज्ञान , जितेन्द्रयता', जितान्द्रयता, विशालता, शक्तियों का विकास, तप और सत्य'-ये वे सात पग हैं, जो मुझे आपका मित्र बनाते हैं। आपकी सहायता से ही मैं इन पगों को चल पाता है।
भावार्थ
सर्वत्र प्रभु का स्तवन दृष्टिगोचर होता है। सब विचारशील लोग प्रभु का ही स्मरण करते हैं। ये प्रभु हमारे लिए सब आवश्यक पदार्थों को देते हैं। वे हमारे 'युज्य ससपद' सखा हैं।
भाषार्थ
[हे वरुण !] (मानुषीषु) मनुष्योंसम्बन्धी (विश्वासु दिक्षु) सब दिशाओं में (ते) तेरे (स्तोत्राणि) स्तुतिमंत्र (उद्यतानि) उद्यमपूर्वक कथित हुए (आ यन्तु) आएँ । (न) निश्चय से (मे) मुझे (देहि) दे, (यत्) जिसे कि (मे) मुझे (अदत्तः असि) तूने अभी तक नहीं दिया, ( युज्य:) योग्य (सप्तपदः) सात पदोंवाला (मे) मेरा (सखा असि) सखा तू है।
टिप्पणी
[अदत्त:=कर्तरिक्तः। अभिप्राय है "निजदर्शन का अदान"। अथर्वा वरुण से उसके निजस्वरूप के प्रत्यक्षज्ञान से वंचित रखने की शिकायत करता है। अथर्वा वरुण से कहता है कि तु तो मेरा योग्य सखा है, सखा भी क्या अपने सखा से निज स्वरूप को छिपाये रखता है। सप्तपदः सखा= जिसके साथ भी मिलकर सात पग चला जाए वह भी सखा बन जाता है, अथवा जिसके साथ सात पद अर्थात् शब्द भी बोल लिये जाएँ वह भी सखा बन जाता है, परन्तु सूक्त में, हम दोनों में, वाक्यों में कई पदों अर्थात् शब्दों में बातें हुई हैं, अतः तू मेरा सखा है, अत: तू मुझे निजस्वरूप का दर्शन दे। वैदिक विवाह पद्धति में "सप्तपदी विधि" के मूल, सम्भवत: मन्त्र ९,१० हो। मन्त्र ९ में अथर्वा की उक्ति वरुण के प्रति है।]
विषय
ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।
भावार्थ
याचक जिस प्रकार राजा से याचना करता है उसी प्रकार परमात्मा से याचना करे। हे परमात्मन् ! (ते उद्यतानि स्तोत्राणि) तुझ द्वारा उपदिष्ट वैदिक स्तोत्र (विश्वासु मानुषीषु दिक्षु अन्तः) समस्त मनुष्य प्रजाओं और दिशाओं के भीतर (आ यन्तु) प्रत्येक को प्राप्त हों। हे भगवन् ! (मे यत् अदत्तः) मुझे अभी तक जो कुछ तूने नहीं दिया (देहि नु मे) वह भी मुझे दे दीजिये। आप ही (मे युज्यः) मेरे सदा साथ रहने योग्य और समाधि द्वारा प्राप्त करने योग्य और (सप्तपदः) सात चरण चल कर बने मित्र के समान सात शीर्षण्य-प्राणों रूप ज्ञान-साधनों द्वारा ज्ञान करने योग्य सब प्रकार से (सखा असि) मेरे सखा, परम मित्र हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord Supreme
Meaning
The celebrant’s prayer: “O Lord Varuna, may the songs of your celebration rise and ring across the quarters of space over the earth among all the people of humanity. Pray bless me with that which is yet wanting in me and which I must attain. You are my friend, my inalienable companion attainable over seven steps of the Vyahrtis: Bhu, Bhuva, Sva, Maha, Jana, tapa and Satyam.
Translation
May your praises rising upwards go to all the mid-quarters, wherever the human beings inhabit. Grant me what you have not given me as yet. You are suited to me. You are my trusted friend having walked seven steps along with me.
Translation
O Varune; let the hymns revealed by Thee spread out. in all the regions inhabited by men, the Knowledge Contained in them. Please give me the gift which Thou best not given to me till now as Thou art my ever firm friend who gives us the Vedic speech of seven meters.
Translation
O God, let Thy lofty Vedic hymns be preached in every place of human habitation. Give me now the gift Thou hast not given. Thou art my Friend for ever firm and faithful.
Footnote
Saptapada: literally means having taken seven steps by which an alliance or a marriage is confirmed' Atharvan speaks this stanza and the first hemistich of the 10th verse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(आ यन्तु) आगच्छन्तु (ते) तव (स्तोत्राणि) स्तुत्यानि कर्माणि (उद्यतानि) उद्+यम−क्त। ऊर्ध्वीकृतानि। प्रस्तुतानि (अन्तः) मध्ये (विश्वासु) सर्वासु (मानुषीषु) म० ८। मनुष्यसम्बन्धिनीषु (दिक्षु) दिशासु (देहि) प्रयच्छ (नु) अवश्यम् (मे) मह्यम् (यत्) दानम् (मे) मह्यम् (अदत्तः) नास्ति दत्तं दानं यस्य सः। अदत्तवान् (असि) (युज्यः) युज−क्यप्। योज्यः। अनुरूपः (मे) मम (सप्तपदः) षप समवाये−क्त। सप्तं समवेतं प्राप्तं पदं स्थानं येन सः। प्राप्ताधिकारः। सुदृढः (सखा) मित्रम् (असि) भवसि ॥
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