अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
स॒त्यम॒हं ग॑भी॒रः काव्ये॑न स॒त्यं जा॒तेना॑स्मि जा॒तवे॑दाः। न मे॑ दा॒सो नार्यो॑ महि॒त्वा व्र॒तं मी॑माय॒ यद॒हं ध॑रि॒ष्ये ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । अ॒हम् ।ग॒भी॒र: । काव्ये॑न । स॒त्यम् । जा॒तेन॑ । अ॒स्मि॒ । जा॒तऽवे॑दा: । न । मे॒ । दा॒स: । न । आर्य॑: । म॒हि॒ऽत्वा । व्र॒तम् । मी॒मा॒य॒ । यत् । अ॒हम् । ध॒रि॒ष्ये ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यमहं गभीरः काव्येन सत्यं जातेनास्मि जातवेदाः। न मे दासो नार्यो महित्वा व्रतं मीमाय यदहं धरिष्ये ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । अहम् ।गभीर: । काव्येन । सत्यम् । जातेन । अस्मि । जातऽवेदा: । न । मे । दास: । न । आर्य: । महिऽत्वा । व्रतम् । मीमाय । यत् । अहम् । धरिष्ये ॥११.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (सत्यम् सत्यम्) सत्य-सत्य (काव्येन) स्तुतियोग्य (जातेन) प्रसिद्ध ब्रह्म के साथ (गभीरः) शान्त (जातवेदाः) बड़ी बुद्धिवाला (अस्मि) हूँ। (न आर्यः) अनार्य, अविद्वान् (दासः) दास, शूद्र (मे) मेरे (व्रतम्) व्रत को (न) नहीं (मीमाय) तोड़ सका, (यत्) जिसको (अहम्) मैं (महित्वा) बड़ेपन से (धरिष्ये) धारण करूँगा ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य ब्रह्मविद्या से धीर ज्ञानी होता है और कोई मूर्ख उसके संकल्प में विघ्न नहीं डाल सकता ॥३॥
टिप्पणी
३−(सत्यम्) यथार्थम् (अहम्) जीवः (गभीरः) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५। इति गम्लृ−ईरन्, मस्य भः। शान्तः (काव्येन) म० १। स्तुत्येन ब्रह्मणा (सत्यम्) (जातेन) प्रसिद्धेन (अस्मि) (जातवेदाः) जातधनः। जातप्रज्ञः (न) निषेधे (मे) मम (दासः) अ० ४।३२।१। शूद्रः (न आर्यः) अ० ४।३२।१। न प्राप्तुं योग्यः। अनार्यः। अविद्वान्। (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन (व्रतम्) वरणीयं कर्म (मीमाय) मीञ् हिंसायाम्−लिटि छान्दसं रूपम्। हिंसितवान् (यत्) व्रतम् (अहम्) (धरिष्ये) धरिष्यामि ॥
विषय
वा न दासः, न आर्यः [न अर्यः]
पदार्थ
१. वेद का ज्ञान होने पर उपासक अनुभव करता है कि (अहम्) = मैं (सत्यम्) = सचमुच (काव्येन) = इस वेदरूप काव्य से (गभीर:) = कुछ गम्भीर वृत्ति का बना हूँ। (सत्यम्) = सचमुच (जातेन) = प्रादुर्भूत हुए-हुए इस वेदकाव्य से मैं (जातवेदा:) = प्रादुर्भूत ज्ञानवाला (अस्मि) = हुआ हूँ। २. अब गम्भीर बनकर व ज्ञान प्राप्त करके (यत् व्रतं अहं धरिष्ये) = जिस व्रत को मैं धारण करूँगा वह (महित्वा) = उस प्रभुपूजन के दृष्टिकोण से ही होगा। मैं वेदानुकूल कार्य करता हुआ प्रभु का उपासन करूंगा। (में) = मेरे उस व्रत को (न दासः) = न कोई उपक्षय की वृत्तिवाला पुरुष और (न अर्यः) = न कोई धनी वैश्य (मीमाय) = हिंसित करनेवाला होगा, अर्थात् भयों व प्रलोभनों से मैं कर्त्तव्यमार्ग से विचलित न होऊँगा।
भावार्थ
वेदज्ञान मनुष्य को गम्भौर व समझदार बनाता है। इस ज्ञान से गम्भीर व समझदार बनकर जिस व्रत को यह धारण करता है, उस व्रत से इसे किसी प्रकार के भय व प्रलोभन विचलित नहीं कर पाते।
भाषार्थ
(सत्यम्) सत्य है कि (अहम्) मैं अथर्वा१ (काव्येन) वेदकाव्य द्वारा (गभीरः) गहन हुआ हूँ, रहस्यमय हुआ हूँ, (सत्यम् ) सत्य है कि ( जातेन) उत्पन्न प्रज्ञा तथा उत्पन्न जगत् के कारण ( जातवेदा:) प्राप्त प्रज्ञा तथा धनवाला (अस्मि) मैं हुआ हूँ। (महित्वा) निज महिमा के कारण, ( न दासः) न कोई उपक्षयकारी व्यक्ति और ( न आर्य: ) न कोई श्रेष्ठपुरुष ( मे) मेरे (व्रतम् ) व्रत को ( मीमाय) नष्ट कर सका है, और न नष्ट कर सकेगा (धरिष्ये) जिसे कि मैं भविष्य में धारण करूंगा।
टिप्पणी
[वेदकाव्य, वरुण (परमेश्वर) ने रचा है। वेद नानाविध काव्यालकारों, तथा स्थान-स्थान में द्विविधार्थक, त्रिविधार्थक मन्त्रों, तथा अतीत अनागत घटनाओं के वर्णन आदि से अतिंगम्भीर, दुर्ज्ञेय है। मैं अथर्वा ऐसे वेदज्ञान के कारण जातवेदा: हुआ, और उत्पन्न जगत् के कारण भी जातवेदा: हुआ हूँ। जगत् 'जातवेदस्' रूप है, इस में धन की विवमानता है । वेदः धननाम (निघं २।१०)। यह कथन अथर्वा का है, वरुण का नहीं। अथर्वा दृढ़व्रती है। इसका व्रत कोई भंग नहीं कर सकता ।] [१. अथर्वा है निरुद्धचित्तवृत्ति महायोगी "थर्वतिश्चरतिकर्म्मा तत्प्रपिधः" (निरुक्त ११।२। १९)। सम्भवतः इस अथर्वा द्वारा मनुष्प-सृष्टि के प्रारम्भ में 'वरुणनामक परमेश्वर' ने अथर्ववेद का आविर्भाव किया हो और प्रत्येक मनुष्य सुष्टिकाल में अथर्वा द्वारा ही अथर्ववेद का आविर्भाव होता हो, और अथर्वाऋषि तथा अथर्ववेद का नित्य सम्बन्ध हो। अथर्ववेद को 'अधवाङ्गिरसवेद' भी कहते है, यथा "अथर्वाङ्गिरसो मुखम्" (अथर्व० १०।७।२०)। अथर्वा ही अङ्गिराः है "अथर्वा चासौ आङ्गिराः", समासान्तः टच्। इसलिए अथर्ववेद का ऋषि अङ्गिरा है, यह भी कहा जाता है। अङ्गिराः है अग्नि। यथा "तं त्वा समिद्धिराङ्गरो घृतेन वर्धयामसि" (यजुः ३।३) । अग्नि सर्वदाहक है। महायोगी अथर्वा भी सर्वपापदाहक होंने से अग्निरूप है। महायोगी का निष्पाप होना स्वतः सिद्ध है ।]
विषय
ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।
भावार्थ
विद्वान् धनी के प्रति उत्तर देता है—(सत्यम्) वास्तव में (काव्येन) वेद के ज्ञान से (अहम् गभीरः) मैं गंभीर, गहरा विद्वान् हूं। और (सत्यं जातेन) वास्तव में विधान से ही मैं (जात-वेदाः अस्मि) समस्त पदार्थों का और वेदों का ज्ञाता होगया हूं (मे व्रतं) मेरे सत्यमय व्रत = दृढ संकल्प को (यद् अहं) जिसको मैं (महित्वा धरिष्ये) अपने आत्मसामर्थ्य से धारण कर लेता हूं (आर्यः न मीमाय) उसे कोई श्रेष्ठ पुरुष भी विनाश नहीं कर सकता और (न दासः) न खल पुरुष ही उसका विनाश कर सकता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord Supreme
Meaning
“True it is I am deep and serious, unfathomable, unknowable beyond thought and words. I am all wise and omniscient by virtue of the true wisdom of the poetry of existence and all that is in existence itself. Neither the noble nor the ignoble with all their power and potential can ever comprehend the law and discipline which I ordain and sustain.”
Translation
Truly, I am profound with omnivision; truly due to the creation I am knower of all the beings. Neither a slave, nor a master with his might can violate the law that I shall lay down.
Translation
The learned says-Really I am firm and quiet, really I possess the integrity of wise man through distinct and revealed Knowledge. The rules which I establish no one of the wicked men and no one of Aryas by his grandeur may violate.
Translation
Truly I am profound in wisdom through Vedic lore, truly I know by nature all existing things. Neither a low nor a noble person can Violate the law that I establish through my spiritual power.
Footnote
Atharvan, the learned person, replies to Varuna, the rich king or God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(सत्यम्) यथार्थम् (अहम्) जीवः (गभीरः) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५। इति गम्लृ−ईरन्, मस्य भः। शान्तः (काव्येन) म० १। स्तुत्येन ब्रह्मणा (सत्यम्) (जातेन) प्रसिद्धेन (अस्मि) (जातवेदाः) जातधनः। जातप्रज्ञः (न) निषेधे (मे) मम (दासः) अ० ४।३२।१। शूद्रः (न आर्यः) अ० ४।३२।१। न प्राप्तुं योग्यः। अनार्यः। अविद्वान्। (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन (व्रतम्) वरणीयं कर्म (मीमाय) मीञ् हिंसायाम्−लिटि छान्दसं रूपम्। हिंसितवान् (यत्) व्रतम् (अहम्) (धरिष्ये) धरिष्यामि ॥
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