अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
त्वं ह्यङ्ग व॑रुण॒ ब्रवी॑षि॒ पुन॑र्मघेष्वव॒द्यानि॒ भूरि॑। मो षु प॒णीँर॑भ्ये॒ताव॑तो भू॒न्मा त्वा॑ वोचन्नरा॒धसं॒ जना॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । अ॒ङ्ग । व॒रु॒ण॒ । ब्रवी॑षि । पुन॑:ऽमघेषु । अ॒व॒द्यानि॑ । भूरि॑ । मो इति॑ । सु । प॒णीन् । अ॒भि । ए॒ताव॑त: । भू॒त् । मा । त्वा॒ । वो॒च॒न् । अ॒रा॒धस॑म् । जना॑स: ॥११.७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह्यङ्ग वरुण ब्रवीषि पुनर्मघेष्ववद्यानि भूरि। मो षु पणीँरभ्येतावतो भून्मा त्वा वोचन्नराधसं जनासः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । अङ्ग । वरुण । ब्रवीषि । पुन:ऽमघेषु । अवद्यानि । भूरि । मो इति । सु । पणीन् । अभि । एतावत: । भूत् । मा । त्वा । वोचन् । अराधसम् । जनास: ॥११.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
विषय - केवल धन नहीं, निर्धनता भी नहीं
पदार्थ -
१. हे (अङ्ग) = गतिशील (वरुण) = सब पापों का निवारण करनेवाले प्रभो! (त्वं हि ब्रवीषि) = आप ही हमें वेद में यह बतलाते हैं कि (पुनः मघेषु) = फिर-फिर धन ही कमाने में लगे हुए लोगों में (भूरि) = बहुत (अवद्यानि) पाप आ जाते हैं। वे टेढ़े-मेढ़े, कुटिल साधनों से धन कमाने में प्रवृत्त हो जाते हैं। आप (एतावत: पणीन् अभि) = इतने बनियों के प्रति (मा उ सुभून) = मत ही हों, अर्थात् न्याय अन्याय सब मार्गों से धन कमाना ही जिनका उद्देश्य हो गया है, उन बनियों को प्राप्त न हों। (जनास:) = लोग (त्वा) = आपको (अराधसम्) = ऐश्वर्यहीन (मा वोचत्) = न कहें, अर्थात् आपका स्तोता कार्यसाधक धन भी न प्रास करे-ऐसी स्थिति न हो। हम आपका स्तवन करते हुए पुरुषार्थ करके न्याय-मार्ग से कार्यसाधक धन को प्राप्त करें ही।
भावार्थ -
धन-ही-धन जब जीवन का उद्देश्य हो जाता है तब हम पाप की ओर झुक जाते हैं। इन पणियों को प्रभु प्राप्त नहीं होते, परन्तु स्तोता न्याय्य मार्ग से पुरुषार्थ करता हुआ कार्यसाधक धन प्राप्त करता ही है।
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