अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
सूक्त - विश्वामित्रः
देवता - मधुलौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोगोपशमन सूक्त
श॒तं च॑ मे स॒हस्रं॑ चापव॒क्तार॑ ओषधे। ऋत॑जात॒ ऋता॑वरि॒ मधु॑ मे मधु॒ला क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । च॒ । मे॒ । स॒हस्र॑म् । च॒ । अ॒प॒ऽव॒क्तार॑: । ओ॒ष॒धे॒ । ऋत॑ऽजाते । ऋत॑ऽवरि । मधु॑ ।मे॒ । म॒धु॒ला । क॒र॒: ॥१५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं च मे सहस्रं चापवक्तार ओषधे। ऋतजात ऋतावरि मधु मे मधुला करः ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । च । मे । सहस्रम् । च । अपऽवक्तार: । ओषधे । ऋतऽजाते । ऋतऽवरि । मधु ।मे । मधुला । कर: ॥१५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 15; मन्त्र » 11
विषय - अपक्षय से दूर
पदार्थ -
१. मे (शतम् च) = मेरे जीवन के सौ वर्ष (च) = तथा (सहस्त्रम्) = हजारों वर्ष भी (अपवक्तार:) = बुराइयों व अपयश को मुझसे दूर रखनेवाले हों। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ -
यहाँ सहल के साथ 'मे' जोड़ना बहुत महत्त्वपूर्ण है। हजारों वर्ष तक जीना सामान्यतया सम्भव नहीं, परन्तु हज़ारों वर्ष तक भी मैं अपयश से बचा रहे। मेरी अपकीर्ति न हो।
विशेष -
जीवन को मधुर बनाता हुआ यह सबके प्रति मधुर वाणी बोलता हुआ सबका मित्र बनता है, अतः विश्वामित्र कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।