अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
दि॒वस्त्वा॑ पातु॒ हरि॑तं॒ मध्या॑त्त्वा पा॒त्वर्जु॑नम्। भूम्या॑ अय॒स्मयं॑ पातु॒ प्रागा॑द्देवपु॒रा अ॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । त्वा॒ । पा॒तु॒ । हरि॑तम् । मध्या॑त् । त्वा॒ । पा॒तु॒ । अर्जु॑नम् । भूम्या॑: । अ॒य॒स्मय॑म् । पा॒तु॒ । प्र । अ॒गा॒त् । दे॒व॒ऽपु॒रा: । अ॒यम् ॥२८.९॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्त्वा पातु हरितं मध्यात्त्वा पात्वर्जुनम्। भूम्या अयस्मयं पातु प्रागाद्देवपुरा अयम् ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । त्वा । पातु । हरितम् । मध्यात् । त्वा । पातु । अर्जुनम् । भूम्या: । अयस्मयम् । पातु । प्र । अगात् । देवऽपुरा: । अयम् ॥२८.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 9
विषय - देव-पुराः [देवों के अग्नगमन]
पदार्थ -
१. (हरितम्) = अज्ञान को हरनेवाला 'कान, नाक, मुख' का (त्रिक त्वा) = तुझे (दिवः) = ज्ञान के हेतु से (पातु) = रक्षित करे। (अर्जुनम्) = यह चैदीला रजत-आनन्द का साधन 'मुख, त्वचा, हाथ' का त्रिक (त्वा) = तुझे (मध्यात्) = हृदय व उदर से (पातु) = रक्षित करे । तेरा यह त्रिक रञ्जन को मर्यादा में रखता हुआ तेरे हृदय व उदर को विकृत न होने दे। (अयस्मयम्) = 'पायु, उपस्थ व पाद' का त्रिक शरीर को दृढ़ बनाता हुआ (भूम्या) = इस शरीर के हेतु से (पातु) = तेरा रक्षण करे। इस त्रिक का समुचित कार्य शरीर को दृढ़ बनाना होता है। (अयम्) = धुलोक, मध्य व भूमि [मस्तिष्क, हृदय व उदर तथा शरीर] से रक्षित होनेवाला यह पुरुष (देवपुराः प्रागात्) = देवों की अग्रगतिवाला होता है, देवलोकों को प्राप्त करता है [पुर अग्रगमने, टाप]। देव जैसे आगे गतिवाले होते हैं-उन्नति पथ पर आगे बढ़ते हैं, उसी प्रकार यह उन देवपुरों को-देवों की अग्रगतियों को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ -
'हरित' ह्युलोक से, 'अर्जुन' मध्य से तथा 'अयस्' भूमि से हमारा रक्षण करे । यह रक्षित पुरुष देवों की अग्रगतियोंवाला हो।
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