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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 10
    सूक्त - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त

    क्र॒व्याद॑मग्ने रुधि॒रं पि॑शा॒चं म॑नो॒हनं॑ जहि जातवेदः। तमिन्द्रो॑ वा॒जी वज्रे॑ण हन्तु छि॒नत्तु॒ सोमः॒ शिरो॑ अस्य धृ॒ष्णुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। अ॒ग्ने॒ । रु॒धि॒रम् । पि॒शा॒चम् । म॒न॒:ऽहन॑म् । ज॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तम् । इन्द्र॑: । वा॒जी । वज्रे॑ण । ह॒न्तु॒ । छि॒नत्तु॑ । सोम॑: । शिर॑: । अ॒स्य॒ । धृ॒ष्णु: ॥२९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रव्यादमग्ने रुधिरं पिशाचं मनोहनं जहि जातवेदः। तमिन्द्रो वाजी वज्रेण हन्तु छिनत्तु सोमः शिरो अस्य धृष्णुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रव्यऽअदम्। अग्ने । रुधिरम् । पिशाचम् । मन:ऽहनम् । जहि । जातऽवेद: । तम् । इन्द्र: । वाजी । वज्रेण । हन्तु । छिनत्तु । सोम: । शिर: । अस्य । धृष्णु: ॥२९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः अग्ने) = ज्ञानी अग्नणी वैद्य ! (क्रव्यादम्) = मांस को खा जानेवाले, (रुधिरम्) = रक्त संचारण में रुकावट पैदा करनेवाले, (मनोहनम्) = मन को बिगाड़ देनेवाले (पिशाचम) = रोगकृमि को (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष ( वाजी) = शक्तिशाली होता हुआ (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूपी वत्र से हन्तु नष्ट कर दे। 'जितेन्द्रियता, शक्ति व क्रियाशीलता' रोगकृमियों के विनाश के साधन हैं। शरीर में सुरक्षित (सोमः) = वीर्य (अस्य) = इस रोगकृमि के (शिरः च्छिनत्तु) = सिर को काट डाले। यह सोम (धृष्णु:) = रोगरूप शत्रुओं को धर्षण करनेवाला हो।

    भावार्थ -

    वैद्य औषध-प्रयोग से उन कृमियों का विनाश करे जो मांस खा जानेवाले, रुधिराभिसरण में रुकावट पैदा करनेवाले व मन पर उदासी लानेवाले हैं। हम जितेन्द्रिय व क्रियाशील बनकर सोम-रक्षण करते हुए इन रोगों का विनाश कर दें।

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