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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 100

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
    सूक्त - गरुत्मान ऋषि देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनिवारण का उपाय

    दे॒वा अ॑दुः॒ सूर्यो॒ द्यौर॑दात्पृथि॒व्यदात्। ति॒स्रः सर॑स्वतिरदुः॒ सचि॑त्ता विष॒दूष॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । अ॒दु॒: । सूर्य॑: । अ॒दा॒त् । द्यौ: । अ॒दा॒त् । पृ॒थि॒वी । अ॒दा॒त् । ति॒स्र: । सर॑स्वती: । अ॒दु॒: । सऽचि॑त्ता: । वि॒ष॒ऽदूष॑णम् ॥१००.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा अदुः सूर्यो द्यौरदात्पृथिव्यदात्। तिस्रः सरस्वतिरदुः सचित्ता विषदूषणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । अदु: । सूर्य: । अदात् । द्यौ: । अदात् । पृथिवी । अदात् । तिस्र: । सरस्वती: । अदु: । सऽचित्ता: । विषऽदूषणम् ॥१००.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 100; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (देवाः) = सब देव-ज्ञानी पुरुष (सचित्ता:) = समान मनवाले होते हुए (विषदूषणम् अदु:) = विषनाशक औषध देते हैं। (सूर्य:) = सबका प्रेरक आदित्य भी विषदूषण औषध (अदात्) = देता है। (द्यौः) = यह प्रकाशमय अन्तरिक्षलोक भी उस औषध को (अदात्) = दे। (पृथिवी अदात्) = यह भूमि देवता भी वह औषध दे। २. (तिस्त्र:) = तीनों (सरस्वती:) = 'इडा, भारती, सरस्वती' नामक देवताएँ इस विषनाशक औषध को अदुः देती हैं।

    भावार्थ -

    सब समझदार देवपुरुष, तीनों लोक तथा 'इडा, भारती, सरस्वती' नामक तीनों देवताएँ हमारे जीवनों से ईर्ष्या-द्वेष आदि विषों को दूर करें।

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