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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 99/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - सविता
छन्दः - भुरिग्बृहती
सूक्तम् - कल्याण के लिए यत्न
परि॑ दद्म॒ इन्द्र॑स्य बा॒हू स॑म॒न्तं त्रा॒तुस्त्राय॑तां नः। देव॑ सवितः॒ सोम॑ राजन्सु॒मन॑सं मा कृणु स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । द॒द्म॒: । इन्द्र॑स्य । बा॒हू इति॑ । स॒म॒न्तम् । त्रा॒तु: । त्राय॑ताम् । न॒: । देव॑ । स॒वि॒त॒: । सोम॑ । रा॒ज॒न् । सु॒ऽमन॑सम् । मा॒ । कृ॒णु॒ । स्व॒स्तये॑ ॥९९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
परि दद्म इन्द्रस्य बाहू समन्तं त्रातुस्त्रायतां नः। देव सवितः सोम राजन्सुमनसं मा कृणु स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । दद्म: । इन्द्रस्य । बाहू इति । समन्तम् । त्रातु: । त्रायताम् । न: । देव । सवित: । सोम । राजन् । सुऽमनसम् । मा । कृणु । स्वस्तये ॥९९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 99; मन्त्र » 3
विषय - देव सवितः सोम राजन्
पदार्थ -
१.(त्रातुः) = रक्षा करनेवाले (इन्द्रस्य) = शत्रु-विद्रावक राजा की (बाहु) = भुजाओं को (समन्तम्) = चारों और (परिदद्यः) = प्राकारभूत धारण करते हैं। इसप्रकार वह इन्द्र (न:) = हमें (त्रायताम्) = रक्षित करे। २. हे देव-शत्रुओं को जीतने की कामनावाले! (सवितः) = सबको राष्ट्र-रक्षा की प्रेरणा देनेवाले; (सोम) = सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त अथवा शक्तिसम्पन्न [सोम के पुञ्ज] (राजन्) = दीप्त होनेवाले राजन्! (स्वस्तये) = क्षेम [अविनाश] के लिए (मा) = मुझे (सुमनसम्) = उत्साहयुक्त मनवाला (कृणु) = कीजिए। शत्रु का आक्रमण होने पर भी हम मन में उत्साह को न खो बैठें, हम स्वस्थ व उत्साहयुक्त चित्त से संग्राम करनेवाले हों।
भावार्थ -
राजा शत्रुओं को जीतने की कामनावाला, सबको उत्साह की प्रेरणा देनेवाला, शक्तिसम्पन्न व दीस तेजवाला हो। वह सारी प्रजाओं में उत्साह का सञ्चार करे।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि 'गरुत्मान' है-विशाल बोझ को धारण करनेवाला। राजा के सिर पर सारे राष्ट्र का बोझ होता ही है, यह शत्रुओं से राष्ट्र का रक्षण करता हुआ आन्तरिक विष को भी दूर करता है।