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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 99

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कल्याण के लिए यत्न

    यो अ॒द्य सेन्यो॑ व॒धो जिघां॑सन्न उ॒दीर॑ते। इन्द्र॑स्य॒ तत्र॑ बा॒हू स॑म॒न्तं परि॑ दद्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒द्य । सेन्य॑: । व॒ध: । जिघां॑सन् । न॒: । उ॒त्ऽईर॑ते । इन्द्र॑स्य । तत्र॑ । बा॒हू इति॑ । स॒म॒न्तम् । परि॑ । द॒द्म॒: ॥९९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अद्य सेन्यो वधो जिघांसन्न उदीरते। इन्द्रस्य तत्र बाहू समन्तं परि दद्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अद्य । सेन्य: । वध: । जिघांसन् । न: । उत्ऽईरते । इन्द्रस्य । तत्र । बाहू इति । समन्तम् । परि । दद्म: ॥९९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 99; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो (अद्य) = आज (सेन्य:) = शत्रु-सेना का (वधः) = बध-साधन शस्त्र (नः) = हमें (जिघांसन्) = मारना चाहता हुआ (उदीरते) = उद्गत होता है तो (तत्र) = वहाँ-वध होने के समय (इन्द्रस्य) = शत्र विद्रावक राजा की (बाहू) = भुजाओं को अपनी रक्षा के लिए (समन्तम्) = सब ओर से (परिदमः) = प्राकार की भाँति धारण करते हैं।

    भावार्थ -

    शत्रु के आक्रमण की आशंका होते ही राजा की सैन्यरूप भुजाएँ हमारे रक्षण के लिए चारों ओर उपस्थित हों।

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