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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 99

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कल्याण के लिए यत्न

    अ॒भि त्वे॑न्द्र॒ वरि॑मतः पु॒रा त्वां॑हूर॒णाद्धु॑वे। ह्वया॑म्यु॒ग्रं चे॒त्तारं॑ पु॒रुणा॑मानमेक॒जम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । इ॒न्द्र॒ । वरि॑मत: । पु॒रा । त्वा॒ । अं॒हू॒र॒णात् । हु॒वे॒ । ह्वया॑मि । उ॒ग्रम् । चे॒त्तार॑म् । पु॒रुऽना॑मानम् । ए॒क॒ऽजम् ॥९९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वेन्द्र वरिमतः पुरा त्वांहूरणाद्धुवे। ह्वयाम्युग्रं चेत्तारं पुरुणामानमेकजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । इन्द्र । वरिमत: । पुरा । त्वा । अंहूरणात् । हुवे । ह्वयामि । उग्रम् । चेत्तारम् । पुरुऽनामानम् । एकऽजम् ॥९९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 99; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक राजन् । (वरिमत:) = तेरी शक्तियों के विस्तार के कारण (त्वा अभि हुवे) = मैं तुझे पुकारता हूँ। (अंहरणात् पुरा त्वा) [हुवे] = पराजय का कारण होनेवाले कुटिलगमन से पूर्व ही मैं तुझे पुकारता हूँ। २. (उग्रम्) = उद्गुर्णं बलवाले (चेत्तारम्) = विजय के उपायों को समझनेवाले, (पुरुणामानम्) = अनेक शत्रुओं को झुका देनेवाले, (एकजम्) = युद्धों में अकेले ही चमकनेवाले तुझे (हृयामि) = मैं पुकारता हूँ।

    भावार्थ -

    राजा शत्रुओं के आक्रमण से होनेवाली दुर्गाति से पूर्व ही राष्ट्र-रक्षा की व्यवस्था करता है।

     

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