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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
सूक्त - गरुत्मान ऋषि
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनिवारण का उपाय
यद्वो॑ दे॒वा उ॑पजीका॒ आसि॑ञ्च॒न्धन्व॑न्युद॒कम्। तेन॑ दे॒वप्र॑सूतेने॒दं दू॑षयता वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । व॒: । दे॒वा: । उ॒प॒ऽजी॒का॒: । आ॒ऽअसि॑ञ्चन् । धन्व॑नि । उ॒द॒कम् । तेन॑ । दे॒वऽप्र॑सूतेन । इ॒दम् । दू॒ष॒य॒त॒ । वि॒षम् ॥१००.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वो देवा उपजीका आसिञ्चन्धन्वन्युदकम्। तेन देवप्रसूतेनेदं दूषयता विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । व: । देवा: । उपऽजीका: । आऽअसिञ्चन् । धन्वनि । उदकम् । तेन । देवऽप्रसूतेन । इदम् । दूषयत । विषम् ॥१००.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
विषय - उपजीका:
पदार्थ -
१. हे (देवा:) = ज्ञानी पुरुषो! (यत् उदकम्) = जिस जल को (उपजीका:) = दीमक नाम की श्वेत कीड़ियाँ (धन्वनि) = मरुस्थल में जलरहित स्थल में (आसिञ्चन्) = अपने मुख से उत्पन्न कर देती हैं, वह जल (व:) = तुम्हारे लिए है। (तेन) = उस (देवप्रसूतेन) = ईश्वरप्रदत्त शक्ति से उत्पन्न जल से (इदं विषं दूषयत्) = इस विष को दूर करो।
भावार्थ -
दीमक के मुख में एक अद्भुत शक्ति है। वह उसके द्वारा वायुमण्डल के अम्लजन व उद्जन को मिलाकर जल उत्पन्न कर देती है। यह जल विष का औषध है। दीमकों से निकाली गई मिट्टी भी अतिमूत्र व नाड़ीब्रण में औषध का काम देती है।
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