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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 103

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    सूक्त - उच्छोचन देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    सं प॑र॒मान्त्सम॑व॒मानथो॒ सं द्या॑मि मध्य॒मान्। इन्द्र॒स्तान्पर्य॑हा॒र्दाम्ना॒ तान॑ग्ने॒ सं द्या॒ त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । प॒र॒मान् । सम् । अ॒व॒मान् । अथो॒ इति॑ । सम् । द्या॒मि॒ । म॒ध्य॒मान् । इन्द्र॑: । तान् । परि॑ । अ॒हा॒: । दाम्ना॑ । तान् । अ॒ग्ने॒ । सम् । द्य॒। त्वम् ॥१०३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं परमान्त्समवमानथो सं द्यामि मध्यमान्। इन्द्रस्तान्पर्यहार्दाम्ना तानग्ने सं द्या त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । परमान् । सम् । अवमान् । अथो इति । सम् । द्यामि । मध्यमान् । इन्द्र: । तान् । परि । अहा: । दाम्ना । तान् । अग्ने । सम् । द्य। त्वम् ॥१०३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 103; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. प्राणसाधना करता हुआ उपासक दृढ़ निश्चय करता है कि (परमान) = उत्कृष्ट शत्रुओं को ज्ञान-संग व सुख-संग को (संद्यामि) = सम्यक् बद्ध करता हूँ-इन्हें वशीभूत करता हूँ। सत्त्वगुण के ये ही बन्धन है-'सुखसंगेन बध्नाति [सत्त्वं] ज्ञानसंगेन चानघ'। (अवमान) = निकृष्ट शत्रुओं को-प्रमाद, आलस्य व निद्रा को (सं) [द्यामि]-सम्यक् बाँधता हूँ-इन्हें भी वशीभूत करता हूँ। ये ही तमोगुण के बन्धन हैं 'प्रमादालस्य निद्राभिस्तन्निबध्नाति धनञ्जय'। अथो-और अब मध्यमान्-रजोगुणजनित मध्यम बन्धनों को भी सं[द्यामि]-वशीभूत करता है। यह रजोगुण हमें 'तृष्णा व धनोपार्जनोपायभूत कर्मों में लगे रहनेरूप' बन्धन से बाँधता है। मैं इनसे भी ऊपर उठता हूँ। २. (इन्द्रः) = बल से होनेवाले सब कर्मों को करनेवाला प्रभु (तान्) = उन 'ज्ञान-संग, सुख संग, प्रमाद, आलस्य, निद्रा; तृष्णा व कर्मसंग' को (पर्यहा:) = [परि ह] परिवर्जित करे। हम 'इन्द्र' अर्थात् जितेन्द्रिय बनकर इन शत्रुओं को वशीभूत करें। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (तान्) = उन शत्रुओं को (दाम्ना) = रज्जु-संयम-रज्जु से (संद्य) = बाँध डालिए। हम अग्नि बनते हुए आगे बढ़ने की वृत्तिवाले होते हुए इन शत्रुओं को वशीभूत कर सकें।

    भावार्थ -

    हम जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की भावनावाले [इन्द्र+अग्नि] बनकर 'परम, अवम व मध्यम' सभी शत्रुओं का नियमन करनेवाले बनें।

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