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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रशोचन
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
ऐना॑न्द्यतामिन्द्रा॒ग्नी सोमो॒ राजा॑ च मे॒दिनौ॑। इन्द्रो॑ म॒रुत्वा॑ना॒दान॑म॒मित्रे॑भ्यः कृणोतु नः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒ना॒न् । द्य॒ता॒म् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । सोम॑: । राजा॑ । च॒ । मे॒दिनौ॑ । इन्द्र॑: । म॒रुत्वा॑न् । आ॒ऽदान॑म् । अ॒मित्रे॑भ्य: । कृ॒णो॒तु॒ । न॒: ॥१०४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐनान्द्यतामिन्द्राग्नी सोमो राजा च मेदिनौ। इन्द्रो मरुत्वानादानममित्रेभ्यः कृणोतु नः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एनान् । द्यताम् । इन्द्राग्नी इति । सोम: । राजा । च । मेदिनौ । इन्द्र: । मरुत्वान् । आऽदानम् । अमित्रेभ्य: । कृणोतु । न: ॥१०४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
विषय - इन्द्र+मरुत्वान्
पदार्थ -
१. (इन्द्राग्नी) = जितेन्द्रियता व आगे बढ़ने की वृत्ति (एनान्) = इन शत्रुओं को (आद्यताम्) = सर्वथा बन्धन में करनेवाली हो। इन शत्रुओं को बन्धन में करने पर (सोम:) = शरीरस्थ [वीर्य] (च) = और (राजा) = [राजू दीप्तौ] जीवन की दीप्ति (मेदिनौ) = हमारे प्रति स्नेह करनेवाली हों। शत्रुओं को वशीभूत करने पर शरीर में सोम का रक्षण होता है और जीवन दीस बनता है। २. (मरुत्वान्) = प्राणोंवाला (इन्द्रः) = इन्द्र (न:) = हमारे (अमित्रेभ्यः) = शत्रुओं के लिए (आदानम्) = बन्धन को (कृणोतु) = करे। प्राणसाधना करता हुआ जितेन्द्रिय पुरुष काम-क्रोध आदि शत्रुओं को वशीभूत करनेवाला हो।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय बनें, आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों। ऐसा होने पर ही हम सोम का रक्षण कर पाएँगे और जीवन को दीसि बना पाएंगे। प्राणसाधना करते हुए जितेन्द्रिय बनना ही काम-क्रोध आदि के वशीकरण का उपाय है।
विशेष -
जितन्द्रिय पुरुष ही नीरोग बनता है। यह 'कासा' आदि रोगों का विजेता 'उन्मोचन' कहलता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -