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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 107/ मन्त्र 1
सूक्त - शन्ताति
देवता - विश्वजित्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विश्वजित् सूक्त
विश्व॑जित्त्रायमा॒णायै॑ मा॒ परि॑ देहि। त्राय॑माणे द्वि॒पाच्च॒ सर्वं॑ नो॒ रक्ष॒ चतु॑ष्पा॒द्यच्च॑ नः॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑ऽजित् । त्रा॒य॒मा॒णायै॑ । मा॒ । परि॑ । दे॒हि॒ । त्राय॑माणे । द्वि॒ऽपात् । च॒ । सर्व॑म् । न॒: । रक्ष॑ । चतु॑:ऽपात् । यत् । च॒ । न॒: । स्वम् ॥१०७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वजित्त्रायमाणायै मा परि देहि। त्रायमाणे द्विपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्पाद्यच्च नः स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वऽजित् । त्रायमाणायै । मा । परि । देहि । त्रायमाणे । द्विऽपात् । च । सर्वम् । न: । रक्ष । चतु:ऽपात् । यत् । च । न: । स्वम् ॥१०७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 107; मन्त्र » 1
विषय - त्रायमाणायै
पदार्थ -
१. हे (विश्वजित्) = सम्पूर्ण संसार को जीतनेवाले प्रभो! (मा) = मुझे (ब्रायमाणायै) = जल व अग्नि की उचित व्यवस्था के द्वारा रक्षा करनेवाली शाला के लिए (परिदेहि) = दीजिए-सौंपिए। मुझे ऐसा घर प्राप्त कराइए जो रक्षण करनेवाला हो, जिसमें अग्निदाहादि उपद्रवों व रोगों का भय न हो। २.(प्रायमाणे) = हे रक्षा करनेवाली शाले!(न:) = हमारे (सर्वम्) = सब (द्विपात्) = दो पाँवोंवाले मनुष्योंच और (चतुष्पात्) = चार पैरवाले गौ आदि पशुओं को (रक्ष) = सुरक्षित कर (च) = और (यत्) = जो (न:) = हमारा (स्वम्) = धन है, उसकी भी रक्षा करनेवाली हो।
भावार्थ -
प्रभु हमारे लिए 'त्रायमाण' शाला प्राप्त कराएँ। इसमें हमारे सब मनुष्य व पशु सुरक्षित रूप से निवास करें। यह शाला हमारे सब द्रव्यों का भी रक्षण करनेवाली हो।
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