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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
    सूक्त - शन्ताति देवता - विश्वजित् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विश्वजित् सूक्त

    विश्व॑जित्कल्या॒ण्यै मा॒ परि॑ देहि। कल्या॑णि द्वि॒पाच्च॒ सर्वं॑ नो॒ रक्ष॒ चतु॑ष्पा॒द्यच्च॑ नः॒ स्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑ऽजित् । क॒ल्या॒ण्यै᳡। मा॒ । परि॑ । दे॒हि॒ । कल्या॑णि । द्वि॒ऽपात् । च॒ । सर्व॑म् । न॒: । रक्ष॑ । चतु॑:ऽपात् । यत् । च॒ । न॒: । स्वम् ॥१०७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वजित्कल्याण्यै मा परि देहि। कल्याणि द्विपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्पाद्यच्च नः स्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽजित् । कल्याण्यै। मा । परि । देहि । कल्याणि । द्विऽपात् । च । सर्वम् । न: । रक्ष । चतु:ऽपात् । यत् । च । न: । स्वम् ॥१०७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 107; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (विश्वजित्) = संसार के विजेता हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (कल्याण्यै) = शुभों की साधिका याग आदि क्रिया के लिए (परिदेहि) = अर्पित कीजिए। आपकी प्रेरणा से सुरक्षित घर में मैं यज्ञादि करनेवाला बनूं। २. हे (कल्याणि) = शुभ-साधिके यज्ञादि क्रिये! तू (नः) = हमारे (सर्वम्) = सब द्विपात् दोपाये मनुष्यादि को (च) = तथा (चतुष्पात्) = गवादि पशुओं को (रक्ष) = रक्षित कर, (च) = तथा (यत् नः स्वम्) = जो हमारा धन है, उसे भी रक्षित कर।

    भावार्थ -

    प्रभु हमें याज्ञादि शुभ-साधिका क्रियाओं में प्रवृत्त करें। इन क्रियाओं को करते हुए हम सभी प्रकार से सुरक्षित हों।

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