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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
सूक्त - शन्ताति
देवता - विश्वजित्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विश्वजित् सूक्त
त्राय॑माणे विश्व॒जिते॑ मा॒ परि॑ देहि। विश्व॑जिद्द्वि॒पाच्च॒ सर्वं॑ नो॒ रक्ष॒ चतु॑ष्पा॒द्यच्च॑ नः॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्राय॑माणे । वि॒श्व॒ऽजिते॑। मा॒ । परि॑ । दे॒हि॒ । विश्व॑ऽजित् । द्वि॒ऽपात् । च॒ । सर्व॑म् । न॒: । रक्ष॑ । चतु॑:ऽपात् । यत् । च॒ । न॒: । स्वम् ॥१०७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रायमाणे विश्वजिते मा परि देहि। विश्वजिद्द्विपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्पाद्यच्च नः स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रायमाणे । विश्वऽजिते। मा । परि । देहि । विश्वऽजित् । द्विऽपात् । च । सर्वम् । न: । रक्ष । चतु:ऽपात् । यत् । च । न: । स्वम् ॥१०७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 107; मन्त्र » 2
विषय - विश्वजिते
पदार्थ -
१.हे (त्रायमाणे) = रक्षा करनेवाली शाले। तू (मा) = मुझे (विश्वजिते) = सम्पूर्ण संसार का विजय करनेवाले प्रभु के लिए (परिदेहि) = अर्पित कर। तुझमें निवास करता हुआ मैं प्रभु का स्मरण करनेवाला बनूं। २. हे (विश्वजित्) = संसार के विजेता प्रभो! (न:) = हमारे (सर्वम्) = सब (द्विपात्) = दो पाँवोवाले मनुष्यों तथा (चतुष्यात्) = चार पाँववाले गवादि पशुओं का (रक्ष) = रक्षण कीजिए, (च) = और (यत्) =-जो (नः) = हमारा (स्वम्) = धन है, उसका भी रक्षण कीजिए।
भावार्थ -
सुरक्षित घरों में निवास करते हुए हम प्रभु का स्मरण करें। प्रभु हमारे मनुष्यों, पशुओं व धनों को सुरक्षित करें।
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