अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
मे॒धाम॒हं प्र॑थ॒मां ब्रह्म॑ण्वतीं॒ ब्रह्म॑जूता॒मृषि॑ष्टुताम्। प्रपी॑तां ब्रह्मचा॒रिभि॑र्दे॒वाना॒मव॑से हुवे ॥
स्वर सहित पद पाठमे॒धाम् । अ॒हम् । प्र॒थ॒माम् । ब्रह्म॑णऽवतीम् । ब्रह्म॑ऽजूताम् । ऋषि॑ऽस्तुताम् । प्रऽपी॑ताम् । ब्र॒ह्म॒चा॒रिऽभि॑: । दे॒वाना॑म् । अव॑से । हु॒वे॒ ॥१०८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मेधामहं प्रथमां ब्रह्मण्वतीं ब्रह्मजूतामृषिष्टुताम्। प्रपीतां ब्रह्मचारिभिर्देवानामवसे हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठमेधाम् । अहम् । प्रथमाम् । ब्रह्मणऽवतीम् । ब्रह्मऽजूताम् । ऋषिऽस्तुताम् । प्रऽपीताम् । ब्रह्मचारिऽभि: । देवानाम् । अवसे । हुवे ॥१०८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
विषय - मेधां प्रपीतां ब्रह्मचारिभिः'
पदार्थ -
१. (अहं मेधाम्) = मैं मेधा बुद्धि को देवानाम् अवसे हुवे अपने जीवन में दिव्य गुणों के रक्षण के लिए पुकारता हूँ, उस मेधा को जो (प्रथमाम्) = सबसे मुख्य स्थान में स्थित है, (ब्रह्मण्व तीम्) = वेदज्ञानवाली है ब्(रह्मजूताम्) = ज्ञानियों से सेवित हुई है, (ऋषिष्टुताम्) = तत्वद्रष्टाओं से स्तुत हुई है और (ब्रह्मचारिभिः) = ज्ञान का चरण करनेवाले विद्यार्थियों से (प्रपीताम्) = प्रवर्धित हुई है, अथवा पी गई है, सम्यक् ग्रहण की गई है।
भावार्थ -
बुद्धि हमारे जीवनों में दिव्य गुणों के रक्षण का साधन बनती है। इसी से ज्ञान का वर्धन होता है और 'ज्ञान प्राप्त करना' ही इसकी वृद्धि का साधन बनता है।
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