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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 108

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 108/ मन्त्र 4
    सूक्त - शौनक् देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मेधावर्धन सूक्त

    यामृष॑यो भूत॒कृतो॑ मे॒धां मे॑धा॒विनो॑ वि॒दुः। तया॒ माम॒द्य मे॒धयाग्ने॑ मेधा॒विनं॑ कृणु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ऋषय: । भूतऽकृत: । मेधाम् । मेधाविन: । विदु: । तया । माम् । अद्य । मेधया । अग्ने । मेधाविनम् । कृणु ॥१०८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामृषयो भूतकृतो मेधां मेधाविनो विदुः। तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कृणु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ऋषय: । भूतऽकृत: । मेधाम् । मेधाविन: । विदु: । तया । माम् । अद्य । मेधया । अग्ने । मेधाविनम् । कृणु ॥१०८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 108; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (याम्) = जिस मेधाम् मेधाबुद्धि को भूतकृत:-[भूतम्] प्रत्येक कार्य को उचितरूप में करनेवाले ऋषयः तत्वद्रष्टा अथवा बुराइयों का संहार करनेवाले [ऋष् to kill] मेधाविन:-प्रशस्त मेधावाले पुरुष विदुः जानते हैं, हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (तया मेधया) = उस मेधा से (माम्) = मुझे भी (अद्य) = आज (मेधाविनं कृणु) = मेधावी कीजिए।

    भावार्थ -

    हमें वह मेधा प्राप्त हो, जिसके प्राप्त होने पर हम उचित ही कर्म करते हैं और सब बुराइयों को दूर करनेवाले होते हैं।

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