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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
अ॒ग्निष्टे॒ नि श॑मयतु॒ यदि॑ ते॒ मन॒ उद्यु॑तम्। कृ॑णोमि वि॒द्वान्भे॑ष॒जं यथानु॑न्मदि॒तोऽस॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । ते॒ । नि । श॒म॒य॒तु॒ । यदि॑ । ते॒ ।मन॑: । उत्ऽयु॑तम् । कृ॒णोमि॑। वि॒द्वान् । भे॒ष॒जम् । यथा॑ । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑सि ॥१११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निष्टे नि शमयतु यदि ते मन उद्युतम्। कृणोमि विद्वान्भेषजं यथानुन्मदितोऽससि ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । ते । नि । शमयतु । यदि । ते ।मन: । उत्ऽयुतम् । कृणोमि। विद्वान् । भेषजम् । यथा । अनुत्ऽमदित: । अससि ॥१११.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु-स्मरण-उन्माद-भेषज
पदार्थ -
१. हे साधक! (यदि) = यदि (ते) = तेरा (मन:) = मन (उद्युतम्) = [युञ् बन्धने] विषयों से बद्ध हुआ है तो (अग्नि:)= अग्रणी प्रभु (ते निशमयतु) = [शमो दर्शने] तुझे तत्त्वज्ञान प्राप्त कराएँ। विषयों की असारता दिखलाकर तुझे विषयों से पराङ्मुख करें। २. प्रभु कहते हैं कि (विद्वान्) = ज्ञानी मैं तेरे लिए (भेषजं कृणोमि) = औषध करता हूँ (यथा) = जिससे तू (अनुन्मदितः अससि) = उन्मादरहित होता है।
भावार्थ -
प्रभु-स्मरण ही वह औषध है जो विषयों की असारता दिखाकर हमें विषयोन्माद से बचाती है।
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