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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 111

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त

    इ॒मं मे॑ अग्ने॒ पुरु॑षं मुमुग्ध्य॒यं यो ब॒द्धः सुय॑तो॒ लाल॑पीति। अतोऽधि॑ ते कृणवद्भाग॒धेयं॑ य॒दानु॑न्मदि॒तोऽस॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । पुरु॑षम् । मु॒मु॒ग्धि॒ । अ॒यम् । य: । ब॒ध्द: । सुऽय॑त: । लाल॑पीति ।अत॑: । अधि॑ । ते॒ । कृ॒ण॒व॒त् । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । य॒दा । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑ति ॥१११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं मे अग्ने पुरुषं मुमुग्ध्ययं यो बद्धः सुयतो लालपीति। अतोऽधि ते कृणवद्भागधेयं यदानुन्मदितोऽसति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । मे । अग्ने । पुरुषम् । मुमुग्धि । अयम् । य: । बध्द: । सुऽयत: । लालपीति ।अत: । अधि । ते । कृणवत् । भागऽधेयम् । यदा । अनुत्ऽमदित: । असति ॥१११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इमं मे पुरुषम्) = मेरे इस पुरुष को (मुमुग्धि) = रोगों के कारणभूत पापों से मुक्त कीजिए। (अयम्) = यह (य:) = जो (बद्धः) = इन्द्रियों से बद्ध हुआ-हुआ (सुयत:) = विषयों से खूब ही जकड़ा हुआ-इन्द्रियों जिसके लिए ग्रह बनी हुई हैं और विषय अतिग्रह बने हुए हैं लालपीति-बहुत ही बड़बड़ाता है-असम्बद्ध प्रलाप करता है, इसे आप मुक्त कीजिए। २. (अतः) = अब (यदा अनुन्मदितः असति) = जब यह उन्मादरहित हो जाए तब (ते) = आपके (भागधेयम्) = भाग को (अधिकृणवत्) = अधिक करे, अर्थात् यह खूब ही आपका उपासन करे, जिससे पुन: उन्मादवाला न हो जाए।

    भावार्थ -

    प्रभु की उपासना ही हमें विषयोन्माद से बचानेवाली औषध है।

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