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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
व्या॒घ्रेऽह्न्य॑जनिष्ट वी॒रो न॑क्षत्र॒जा जाय॑मानः सु॒वीरः॑। स मा व॑धीत्पि॒तरं॒ वर्ध॑मानो॒ मा मा॒तरं॒ प्र मि॑नी॒ज्जनि॑त्रीम् ॥
स्वर सहित पद पाठव्या॒घ्रे । अह्नि॑ । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । वी॒र: । न॒क्ष॒त्र॒ऽजा: । जाय॑मान: । सु॒ऽवी॑र: । स: । मा । व॒धी॒त् । पि॒तर॑म् । वर्ध॑मान: । मा । मा॒तर॑म् । प्र । मि॒नी॒त् । जनि॑त्रीम् ॥११०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याघ्रेऽह्न्यजनिष्ट वीरो नक्षत्रजा जायमानः सुवीरः। स मा वधीत्पितरं वर्धमानो मा मातरं प्र मिनीज्जनित्रीम् ॥
स्वर रहित पद पाठव्याघ्रे । अह्नि । अजनिष्ट । वीर: । नक्षत्रऽजा: । जायमान: । सुऽवीर: । स: । मा । वधीत् । पितरम् । वर्धमान: । मा । मातरम् । प्र । मिनीत् । जनित्रीम् ॥११०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
विषय - व्याघ्रे अन्हि
पदार्थ -
१. व्याघ्रे = [प्रा गन्धोपादाने, गन्ध-सम्बन्ध] विशिष्ट सम्बन्ध का उपादान करनेवाले [त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्] (अन्हि) = [न जहाति] कभी भी हमें न छोड़नेवाले उस प्रभु में (वीरः अजनिष्ट) = वीर प्रादुर्भूत होता है। अन्य लोग विपत्ति में हमारा साथ छोड़ जाते हैं, परन्तु उस समय प्रभु के साथ हमारा सम्बन्ध और घनिष्ठ हो जाता है। प्रभु ही वस्तुतः हमारे माता और पिता हैं वे अपने इस सम्बन्ध को कभी छोड़ देंगे' ऐसी बात नहीं। हम ही उन्हें भूले रहते हैं। उस प्रभु में स्थित होनेवाला व्यक्ति बीर बनता है। यह (नक्षत्रजा:) = विज्ञान के नक्षत्रों में विकास प्रास करता हुआ (जायमान:) = उत्तरोत्तर शक्ति के प्रादुर्भाववाला (सुवीरः) = उत्तम वीर बनता है। २. (सः) = वह सुवीर (वर्धमान:) = वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (पितरं मा वधीत्) = पिता का हिंसन करनेवाला न हो-पिता की बात को न माननेवाला न हो तथा (जनित्रीम्) = जन्म देनेवाली (मातरं मा प्रमिनीत्) = माता को हिंसित न करे-माता के अनुशासन में चले। 'प्रभु' पिता हैं, 'वेद' माता है। यह सुवीर प्रभु-प्रेरणा के अनुसार और वेद के आदेश के अनुसार आचरण करनेवाला हो।
भावार्थ -
हम उस विशिष्ट सम्बन्धवाले, कभी भी हमारा साथ न छोड़नेवाले प्रभु में स्थित होते हुए 'वीर' बनें। विज्ञान के नक्षत्रों में दीस बनकर उत्तम वीर हों। माता-पिता के कहने में चलें-प्रभु की प्रेरणा और वेद के आदेश अनुसार ।
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