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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
प्र॒त्नो हि कमीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च॒ सत्सि॑। स्वां चा॑ग्ने त॒न्वं पि॒प्राय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒मा य॑जस्व ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्न: । हि । कम् । ईड्य॑: । अ॒ध्व॒रेषु॑ । स॒नात् । च॒ । होता॑ । नव्य॑: । च॒ । स॒त्सि॒ । स्वाम् । च॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व᳡म् । प्रि॒प्राय॑स्व । अ॒स्मभ्य॑म् । च॒ । सौभ॑गम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥११०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्नो हि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सत्सि। स्वां चाग्ने तन्वं पिप्रायस्वास्मभ्यं च सौभगमा यजस्व ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्न: । हि । कम् । ईड्य: । अध्वरेषु । सनात् । च । होता । नव्य: । च । सत्सि । स्वाम् । च । अग्ने । तन्वम् । प्रिप्रायस्व । अस्मभ्यम् । च । सौभगम् । आ । यजस्व ॥११०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु का शरीररूप 'आत्मा' [स्वां तन्वम्]
पदार्थ -
१. हे प्रभो! आप (प्रत्न:) = सनातन हैं, (हि) = निश्चय से (कम्) = आनन्दस्वरूप आप (ईयः) = स्तुति के योग्य है (च) = और (अध्वरेषु) = यज्ञों में आप ही (सनात्) = सदा से (होता) = आहुति देनेवाले हैं आपके द्वारा ही सब यज्ञ परिपूर्ण होते हैं, (च) = और (नव्य:) = आप अपने इस शरीर को, अर्थात् मैं जो आपका शरीर हूँ, उसे (पिप्रायस्व) = प्रीणित कीजिए। आपकी कृपा से मैं अपना पूरण कर सकूँ (च) = और आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सौभगम्) = सौभाग्य को (आयजस्व) = सर्वथा प्राप्त कराइए।
भावार्थ -
प्रभु सनातन है, सदा स्तुत्य हैं, वे ही सब यज्ञों के होता हैं, वे ही स्तुत्य हैं। हम प्रभु के शरीररूप हैं, हममें प्रभु का निवास है। प्रभु इस शरीर का पूरण करें और हमें सौभाग्य प्रदान करें।
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