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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
ज्ये॑ष्ठ॒घ्न्यां जा॒तो वि॒चृतो॑र्य॒मस्य॑ मूल॒बर्ह॑णा॒त्परि॑ पाह्येनम्। अत्ये॑नं नेषद्दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठज्ये॒ष्ठ॒ऽघ्न्याम् । जा॒त: । वि॒ऽचृतो॑: । य॒मस्य॑ । मू॒ल॒ऽबर्ह॑णात् । परि॑ । पा॒हि॒ । ए॒न॒म् । अति॑ । ए॒न॒म् । ने॒ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचृतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परि पाह्येनम्। अत्येनं नेषद्दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठज्येष्ठऽघ्न्याम् । जात: । विऽचृतो: । यमस्य । मूलऽबर्हणात् । परि । पाहि । एनम् । अति । एनम् । नेषत् । दु:ऽइतानि । विश्वा । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥११०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 2
विषय - सब दुरितों से दूर
पदार्थ -
१. (ज्येष्ठज्याम्) = [हन् गतौ] अत्यन्त प्रशस्त क्रियाओं में (जात:) = प्रादुर्भूत हुए-हुए हे अग्ने! आप (एनम्) = अपने इस उपासक को (विचूतो: यमस्य) = [विमोचयित्रोः] अन्धकार से छुड़ानेवाले सूर्य-चन्द्र के नियम के (मूलबर्हणात्) = मूल छेदन से( परिपाहि) = बचाइए। प्रशस्त क्रियाओं में लगा हुआ उपासक अपने हृदय में आपके प्रकाश को देखता है। आप इस उपासक को सूर्य-चन्द्रमा के नियम को न तोड़ने के लिए प्रेरित कीजिए-'स्वस्तिपन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव' सूर्य-चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से मार्ग पर चलता हुआ यह उपासक कल्याण प्राप्त करता है। २. आप (एनम्) = इस उपासक को (विश्वा दुरितानि) = सब दुरितों-अशुभाचरणों से (अति) = उलाँधकर (शतशारदाय) = सौ वर्ष के (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घ जीवन के लिए (नेषत्) = ले-चलिए।
भावार्थ -
हम उत्तम क्रियाओं को करते हुए प्रभु के प्रकाश को देखें। प्रभु हमें सूर्य और चन्द्रमा की भौति नियमित गतिवाला बनाएँ और सब दुरितों को दूर करके हमें सौ वर्ष का दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
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