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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 111/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
दे॑वैन॒सादुन्म॑दित॒मुन्म॑त्तं॒ रक्ष॑स॒स्परि॑। कृ॑णोमि वि॒द्वान्भे॑ष॒जं य॒दानु॑न्मदि॒तोऽस॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व॒ऽए॒न॒सात् । उत्ऽम॑दितम् । उत्ऽम॑त्तम् । रक्ष॑स: । परि॑ । कृ॒णो॒मि॑ । वि॒द्वान् । भे॒ष॒जम् । य॒दा । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑ति ॥१११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
देवैनसादुन्मदितमुन्मत्तं रक्षसस्परि। कृणोमि विद्वान्भेषजं यदानुन्मदितोऽसति ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽएनसात् । उत्ऽमदितम् । उत्ऽमत्तम् । रक्षस: । परि । कृणोमि । विद्वान् । भेषजम् । यदा । अनुत्ऽमदित: । असति ॥१११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 3
विषय - देवैनसात् रक्षसः
पदार्थ -
१. (देवैनसात्) = देवों के विषयों में किये गये पाप से (उन्मदितम्) = उन्मादयुक्त हुए-हुए को अथवा (रक्षस:) = [अपने रमण के लिए औरों को क्षय करनेवाले] रोगकृमियों से (उन्मत्तं परि) = उन्मत्त हुए पुरुष को लक्ष्य करके विद्वान्-ज्ञानी मैं (यदा) = जब (भेषजं कृणोमि) = चिकित्सा करता हूँ तब (अनुन्मदितः असति) = यह उन्मादरहित हो जाता है।
भावार्थ -
उन्माद के दो कारण हो सकते हैं-एक, देवों के विषय में कोई पाप करना और इससे मानस सन्तुलन खो बैठना। दूसरे, किसी रोगकृमि से उत्पन्न विकार के कारण। ज्ञानी पुरुष इन दोनों प्रकार के उन्माद को उचित औषध-प्रयोग से दूर करे।
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