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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
येभिः॒ पाशैः॒ परि॑वित्तो॒ विब॒द्धोऽङ्गेअ॑ङ्ग॒ आर्पि॑त॒ उत्सि॑तश्च। वि ते मु॑च्यन्तं वि॒मुचो॒ हि सन्ति॑ भ्रूण॒घ्नि पू॑षन्दुरि॒तानि॑ मृक्ष्व ॥
स्वर सहित पद पाठयेभि॑: । पाशै॑: । परि॑ऽवित्त: । विऽब॑ध्द: । अङ्गे॑ऽअङ्गे । आर्पि॑त: । उत्सि॑त: । च॒ । वि । ते । मु॒च्य॒ता॒म्। वि॒ऽमुच॑: । हि । सन्ति॑ । भ्रू॒ण॒ऽघ्नि । पू॒ष॒न् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । मृ॒क्ष्व॒ ॥११२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
येभिः पाशैः परिवित्तो विबद्धोऽङ्गेअङ्ग आर्पित उत्सितश्च। वि ते मुच्यन्तं विमुचो हि सन्ति भ्रूणघ्नि पूषन्दुरितानि मृक्ष्व ॥
स्वर रहित पद पाठयेभि: । पाशै: । परिऽवित्त: । विऽबध्द: । अङ्गेऽअङ्गे । आर्पित: । उत्सित: । च । वि । ते । मुच्यताम्। विऽमुच: । हि । सन्ति । भ्रूणऽघ्नि । पूषन् । दु:ऽइतानि । मृक्ष्व ॥११२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 112; मन्त्र » 3
विषय - घर के दो महान् कष्ट
पदार्थ -
१. (परिवित्त:) = विवाहित छोटे भाई का अविवाहित बड़ा भाई (येभिः पाशै:) = जिन ग्राही आदि रोगों के फन्दों से विबद्धः-बँधा हुआ, अङ्गे-अङ्गे अर्पित:-[आर्पयितृ-one who injures or hurts] अङ्ग-अङ्ग में पीड़ित है, च-और उत्सित:-प्रबलरूप से जकड़ा हुआ है, ते वे सब पाश विमुच्यन्ताम्-छूट जाएँ। विमुचः इन पाशों से छुडानेवाली कितनी ही औषध हि-निश्चय से सन्ति-हैं। बड़े का स्वस्थ होना परिवार के हित के दृष्टिकोण से नितान्त आवश्यक है। २. हे पूषन्-पोषक प्रभो! भूणनि-जिनके सन्तान गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं, उस स्त्री में दुरितानि मक्ष्व-दुर्गति के कारणभूत कष्टों को दुर कीजिए। पूषा प्रभु की कृपा से सन्तान का गर्भ में ठीक से पोषण हो और माता स्वस्थ सन्तान को जन्म देनेवाली हो।
भावार्थ -
परिवार में आनेवाले दो बड़े भारी कष्ट है-एक, अविवाहित बड़े भाई का ग्राही आदि रोग से पीड़ित हो जाना। दूसरे, पुत्रवधू का गर्भ बीच में ही गिर जाना। प्रभु इन दोनों ही कष्टों को दूर करने का अनुग्रह करें।
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