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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 113

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 113/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - पूषा छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    द्वा॑दश॒धा निहि॑तं त्रि॒तस्याप॑मृष्टं मनुष्यैन॒सानि॑। ततो॒ यदि॑ त्वा॒ ग्राहि॑रान॒शे तां ते॑ दे॒वा ब्रह्म॑णा नाशयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वा॒द॒श॒ऽधा । निऽहि॑तम् । त्रि॒तस्य॑ । अप॑ऽमृष्टम् । म॒नु॒ष्य॒ऽए॒न॒सानि॑ । तत॑: । यदि॑। त्वा॒। ग्राहि॑: । आ॒न॒शे । ताम् । ते॒ ।दे॒वा: । ब्रह्म॑णा । ना॒श॒य॒न्तु॒ ॥११३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वादशऽधा । निऽहितम् । त्रितस्य । अपऽमृष्टम् । मनुष्यऽएनसानि । तत: । यदि। त्वा। ग्राहि: । आनशे । ताम् । ते ।देवा: । ब्रह्मणा । नाशयन्तु ॥११३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 113; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (मनुष्यैनसानि) = मनुष्यों में आजानेवाले पाप (द्वादशधा) = बारह प्रकार के-पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि में (निहितम्) = स्थापित हुए हैं। हम इन्द्रियों, मन व बुद्धि से ही पाप कर बैठते हैं-('इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते')। ये सब पाप (त्रितस्य) = ज्ञान, कर्म व उपासना' का विस्तार करने से (अपमृष्टम्) = धुल जाते हैं। [त्रीन् तनोति] 'काम, क्रोध व लोभ'-इन तीनों को तैर जानेवालों के ये पाप नष्ट हो जाते हैं [त्रीन् तरति]। २. हे मनुष्य! (यदि) = यदि तुझमें (ग्राहिः) = गठिया आदि रोग (आनशे) = व्याप्त होते हैं तो (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (ते) = तेरे (ताम्) = उस ग्राहीरूप रोग को (ब्रह्मणा नाशयन्तु) = ज्ञान के द्वारा नष्ट कर डालें। ज्ञान से पापों का परिमार्जन [सफ़ाया] होता है और तब पापमूलक सब रोग भी विनष्ट हो जाते हैं।

    भावार्थ -

    हम ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन व बुद्धि से हो जानेवाले पापों को 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में लगकर नष्ट करनेवाले हों। ज्ञान के द्वारा ग्राही आदि रोग दूर हो जाएँ।

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