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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 114/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त
यद्दे॑वा देव॒हेड॑नं॒ देवा॑सश्चकृमा व॒यम्। आदि॑त्या॒स्तस्मा॑न्नो यू॒यमृ॒तस्य॒र्तेन॑ मुञ्चत ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दे॒वा॒: । दे॒व॒ऽहेड॑नम् ।देवा॑स: । च॒कृ॒म: । व॒यम् । आदि॑त्या: । तस्मा॑त् । न॒: । यू॒यम् । ऋ॒तस्य॑ । ऋ॒तेन॑ । मु॒ञ्च॒त॒ ॥११४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृमा वयम्। आदित्यास्तस्मान्नो यूयमृतस्यर्तेन मुञ्चत ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । देवा: । देवऽहेडनम् ।देवास: । चकृम: । वयम् । आदित्या: । तस्मात् । न: । यूयम् । ऋतस्य । ऋतेन । मुञ्चत ॥११४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 114; मन्त्र » 1
विषय - ऋतस्य ऋतेन
पदार्थ -
१. हे (देवा:) = माता, पिता, आचार्य आदि देवो! (यत् देवहेडनम्) = देवों के निरादररूप जिस पाप को (देवास:) = [देवास: देवनशीला इन्द्रियपरवशाः सन्त:-सा०] व्यर्थ की क्रीड़ा में फंसे हुए इन्द्रियों के परवश (वयम्) = हम लोग (चकृम) = कर बैठते हैं। इन्द्रिय परवशता में पाप हो ही जाता है, उस समय देवों के प्रति अपने कर्तव्यों को हम नहीं कर पाते । २. हे (आदित्या:) = अदिति के पुत्रो! स्वस्थ ज्ञानी पुरुषो! (यूयम्) = आप (तस्मात्) = उस पाप से (ऋतस्य ऋतेन) = यज्ञ-सम्बन्धी सत्य के द्वारा [ऋतम्-यज्ञ, सत्य] (न मुञ्चत) = हमें छुड़ाओ। हम यज्ञ-सम्बन्धी सत्य कर्मों को करते हुए 'देवहेडन' की वृत्ति से मुक्त हों।
भावार्थ -
इन्द्रिय परवशता से मनुष्य पाप कर बैठता है। स्वस्थ ज्ञानी पुरुष यज्ञ-सम्बन्धी सत्य-कर्मों में प्रवृत्त करके मनुष्यों को उस पाप से मुक्त करें।
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