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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त
ऋ॒तस्य॒र्तेना॑दित्या॒ यज॑त्रा मु॒ञ्चते॒ह नः॑। य॒ज्ञं यद्य॑ज्ञवाहसः शिक्षन्तो॒ नोप॑शेकि॒म ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । ऋ॒तेन॑ । आ॒दि॒त्या॒: । यज॑त्रा: । मु॒ञ्चत॑ । इ॒ह । न॒: । य॒ज्ञम् । यत् । य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒स॒: । शिक्ष॑न्त: । न । उ॒प॒ऽशे॒कि॒म ॥११४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्यर्तेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः। यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य । ऋतेन । आदित्या: । यजत्रा: । मुञ्चत । इह । न: । यज्ञम् । यत् । यज्ञऽवाहस: । शिक्षन्त: । न । उपऽशेकिम ॥११४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञवाहसः
पदार्थ -
१. हे (यजन्ना:) = संगतिकरण योग्य व आदरणीय (आदित्या:) = पूर्ण स्वस्थ, ज्ञानी पुरुषो! आप (इह) = इस जीवन में (न:) = हमें (ऋतस्य ऋतेन) = यज्ञ-सम्बन्धी सत्यकर्मों के द्वारा (मुञ्चत) = पाप से मुक्त करो। आपकी संगति व प्रेरणा से हम भी यज्ञशील बनते हुए पापों से मुक्त रहें। २. हे (यज्ञवाहस:) = यज्ञों को वहन करनेवाले देवो! हम (यज्ञम्) = यज्ञ (शिक्षन्तः) = करना चाहते हुए भी (यत्) = जिस पाप के कारण से न (उपशेकिम) = करने में समर्थ नहीं होते, उस पाप से हमें छुड़ाइए। आपकी प्रेरणा व उदाहरण से हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हुए अशुभवृत्तियों से बचे रहें।
भावार्थ -
आदित्य विद्वान् हमें यज्ञ-सम्बन्धी सत्य-कर्मों के द्वारा पाप से छुड़ाएँ। इस पाप के कारण ही हम चाहते हुए भी यज्ञ नहीं कर पाते।
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