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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
यद्या॒मं च॒क्रुर्नि॒खन॑न्तो॒ अग्रे॒ कार्षी॑वणा अन्न॒विदो॒ न वि॒द्यया॑। वै॑वस्व॒ते राज॑नि॒ तज्जु॑हो॒म्यथ॑ य॒ज्ञियं॒ मधु॑मदस्तु॒ नोऽन्न॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । या॒मम् । य॒क्रु: । नि॒ऽखन॑न्त: । अग्रे॑ । कार्षी॑वणा: । अ॒न्न॒ऽविद॑: । न । वि॒द्यया॑ । वै॒व॒स्व॒ते । राज॑नि । तत् । जु॒हो॒मि॒ । अथ॑ । य॒ज्ञिय॑म् । मधु॑ऽमत् । अ॒स्तु॒ । न:॒। अन्न॑म् ॥११६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यामं चक्रुर्निखनन्तो अग्रे कार्षीवणा अन्नविदो न विद्यया। वैवस्वते राजनि तज्जुहोम्यथ यज्ञियं मधुमदस्तु नोऽन्नम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । यामम् । यक्रु: । निऽखनन्त: । अग्रे । कार्षीवणा: । अन्नऽविद: । न । विद्यया । वैवस्वते । राजनि । तत् । जुहोमि । अथ । यज्ञियम् । मधुऽमत् । अस्तु । न:। अन्नम् ॥११६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
विषय - 'यज्ञिय मधुमत्' अन्न
पदार्थ -
१. (कार्षीवणा:) = कृषिकर्म का सेवन करनेवाले (अन्नविदः न) = अन्न प्राप्त करानेवालों के समान (विद्यया) = कृषिविद्या के अनुसार (निखनन्तः) = भूमि को खोदते हुए, अर्थात् हल आदि चलाकर भूमि में बीजों को बोते हुए अग्ने सर्वप्रथम (यत् याम चकः) = जिस नियम को कर देते हैं, (तत्) = उस नियमित अंश को निर्धारित कर के रूप में दिये जानेवाले भाग को (वैवस्वते राजनि) = प्रजा में ज्ञान का प्रकाश फैलानेवाले राजा में (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। २. (अथ) = अब कर के रूप में निधारित अंश को दे देने पर (न:) = हमारे लिए (अन्नम्) = यह अन्न (यज्ञियम्) = संगतिकरण योग्य व पवित्र तथा (मधुमत्) = प्रशस्त माधुर्यवाला (अस्तु) = हो।
भावार्थ -
हम ज्ञानपूर्वक कृषिकार्य करते हुए राष्ट्र में अन्न की कमी न होने दें। राजा को कर के रूप में उचित अन्नभाग प्राप्त कराके अविशष्ट यज्ञिय, मधुमत् अन्न का सेवन करें।
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