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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 115/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पापनाशन सूक्त
द्रु॑प॒दादि॑व मुमुचा॒नः स्वि॒न्नः स्ना॒त्वा मला॑दिव। पू॒तं प॒वित्रे॑णे॒वाज्यं॒ विश्वे॑ शुम्भन्तु॒ मैन॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठद्रु॒प॒दात्ऽइ॑व । मु॒मु॒चा॒न: । स्वि॒न्न: । स्ना॒त्वा । मला॑त्ऽइव । पू॒तम् । प॒वित्रे॑णऽइव । आज्य॑म् । विश्वे॑ । शु॒म्भ॒न्तु॒ । मा॒ । एन॑स: ॥११५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नात्वा मलादिव। पूतं पवित्रेणेवाज्यं विश्वे शुम्भन्तु मैनसः ॥
स्वर रहित पद पाठद्रुपदात्ऽइव । मुमुचान: । स्विन्न: । स्नात्वा । मलात्ऽइव । पूतम् । पवित्रेणऽइव । आज्यम् । विश्वे । शुम्भन्तु । मा । एनस: ॥११५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 115; मन्त्र » 3
विषय - दुपदादिव मुमुचान:
पदार्थ -
१.(विश्वे) = सब देव (मा) = मुझे (एनस:) = पाप से इसप्रकार (शम्भन्तु) = शुद्ध करें (इव) = जैसेकि कोई (दूपदात्) = काष्ठमय पादबन्धन से (मुमुचान:) = छूटता है। मैं पाप से इसीप्रकार छूट जाऊँ (इव) = जैसे (स्विन्न:) = स्वेदयुक्त पुरुष (स्नात्वा) = स्नान करके (मलात्) = मल से पृथक् हो जाता है। (इव) = जैसे (पवित्रेण) = पवन-साधन वस्त्र आदि से (पूतम्) = शुद्ध किया हुआ (आज्यम्) = मृत शुद्ध हो जाता है; इसीप्रकार सब देव मुझे पाप से मुक्त करें।
भावार्थ -
हम पाप से इसप्रकार छूट जाएँ जैसेकि एक पशु खुंटे से, जैसेकि स्विन्न पुरुष स्नान द्वारा स्वेदमल से तथा जैसे छाना हुआ घृत मल से पृथक् हो जाता है।
विशेष -
पापों का संहार करनेवाला यह पुरुष 'जाटिकायन' [जट संघाते] कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।