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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 115

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 115/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    यदि॒ जाग्र॒द्यदि॒ स्वप॒न्नेन॑ एन॒स्योऽक॑रम्। भू॒तं मा॒ तस्मा॒द्भव्यं॑ च द्रुप॒दादि॑व मुञ्चताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। जाग्र॑त् ।यदि॑। स्वप॑न् । एन॑: । ए॒न॒स्य॑: । अक॑रम् । भू॒तम् । मा॒ । तस्मा॑त् । भव्य॑म् । च॒ । द्रु॒प॒दात्ऽइ॑व । मु॒ञ्च॒ता॒म् ॥११५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि जाग्रद्यदि स्वपन्नेन एनस्योऽकरम्। भूतं मा तस्माद्भव्यं च द्रुपदादिव मुञ्चताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। जाग्रत् ।यदि। स्वपन् । एन: । एनस्य: । अकरम् । भूतम् । मा । तस्मात् । भव्यम् । च । द्रुपदात्ऽइव । मुञ्चताम् ॥११५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 115; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. [एनः पापं प्रियम् अस्य, एनसि साधुर्वा] (एनस्य:) = अज्ञानवश पाप की प्रवृत्तिवाला मैं (यदि जाग्रत्) = यदि जागता हुआ, (यदि स्वपन्) = यदि सोता हुआ (एन: अकरम्) = पाप कर बैठता हूँ तो (तस्मात्) = उस पाप से (मा) = मुझे (भूतं भव्यं च) = इहलोक और परलोक [अयं वै लोको भूतं, असौ भविष्यत्-तै० ब्रा०३.८.१८.६] इसप्रकार (मुञ्चताम्) = छुड़ाएँ (इव) = जैसे (द्रुपदात्) = पादबन्धनार्थ द्रुम से किसी पशु को छुड़ाते हैं। २. इहलोक व परलोक में प्राप्त होनेवाले पाप के अशुभ परिणाम को सोचता हुआ मैं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न करूं।

    भावार्थ -

    पापवृत्ति के उत्पन्न हो जाने पर सोते-जागते पाप होने लगते हैं। मैं इन पापों के इहलोक और परलोक में होनेवाले अशुभ परिणामों को सोचूँ और पापवृत्ति से बचूँ।

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