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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 119/ मन्त्र 3
सूक्त - कौशिक
देवता - वैश्वानरोऽग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
वै॑श्वान॒रः प॑वि॒ता मा॑ पुनातु॒ यत्सं॑ग॒रम॑भि॒धावा॑म्या॒शाम्। अना॑जान॒न्मन॑सा॒ याच॑मानो॒ यत्तत्रैनो॒ अप॒ तत्सु॑वामि ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒र: । प॒वि॒ता । मा॒ । पु॒ना॒तु॒ । यत् । स॒म्ऽग॒रम् । अ॒भि॒ऽधावा॑मि । आ॒ऽशाम् । अना॑जानन् । मन॑सा । याच॑मान: । यत् । तत्र॑ । एन॑: । अप॑ । तत् । सु॒वा॒मि॒ ॥११९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरः पविता मा पुनातु यत्संगरमभिधावाम्याशाम्। अनाजानन्मनसा याचमानो यत्तत्रैनो अप तत्सुवामि ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानर: । पविता । मा । पुनातु । यत् । सम्ऽगरम् । अभिऽधावामि । आऽशाम् । अनाजानन् । मनसा । याचमान: । यत् । तत्र । एन: । अप । तत् । सुवामि ॥११९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 119; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु-स्मरण व पाप-शोधन
पदार्थ -
१. (पविता) = हमारे जीवनों को शुद्ध बनानेवाला (वैश्वानरः) = सबका हित करनेवाला प्रभु (मा पुनातु) = मुझे पवित्र जीवनवाला बनाए। (अनाजानन्) = हिताहित विभाग को न जानता हुआ अथवा कर्तव्याकर्तव्य को ठीक से न समझता हुआ (यत्) = जो मैं (संगरम् अभिधावामि) = ऋणापकरण विषयक प्रतिज्ञा की ओर ही दौड़ता हूँ। 'उस दिन लौटा दूंगा', ऐसी प्रतिज्ञाएँ ही करता रहता हैं, लौटात नहीं। इसप्रकार (आशाम) = [धावामि] मैं उन उत्तमणों की आशा पर पानी फेर देता हूँ [धाव शुद्धौ], उनकी आशाओं का सफाया ही कर डालता हूँ। मैं (मनसा) = मन से (याचमान:) = ऐहिक सुखों की ही याचना करता रहता हूँ। ऐहिक सुखों में फंसने के कारण ही तो ऋणी बनता हूँ और ऋणशोधन में समर्थ नहीं होता। २.हे प्रभो! आपसे शक्ति पाकर (तत्र) = उस वैषयिक सुखासक्ति में और ऋण का आदान करने में (यत्) = जो (एन:) = पाप है (तत्) = उस पाप को (अपसुवामि) = मैं अपने से दूर प्रेरित करता हूँ। हे प्रभो! मेरे इस पापमय जीवन को आपको ही शुद्ध करना है।
भावार्थ -
'ऋण न चुकाकर यूँ ही प्रतिज्ञा करते रहना, उत्तमर्ण की आशा पर पानी फेर देना, ऐहिक सुखों में फंसे रहना'-यह सब पाप का मार्ग है। प्रभु-प्रेरणा से मैं इस मार्ग में न जाकर अपने जीवन को शुद्ध बनाऊँ।
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