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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 120

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 120/ मन्त्र 3
    सूक्त - कौशिक देवता - अन्तरिक्षम्, पृथिवी, द्यौः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुकृतलोक सूक्त

    यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। अश्लो॑णा॒ अङ्गै॒रह्रु॑ताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पि॒तरौ॑ च पु॒त्रान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । सु॒ऽहार्द॑: । सु॒ऽकृत॑: । मद॑न्ति । वि॒ऽहाय॑ । रोग॑म् । त॒न्व᳡: । स्वाया॑: । अश्लो॑णा: । अङ्गै॑: । अह्रु॑ता: । स्व॒:ऽगे । तत्र॑ । प॒श्ये॒म॒ । पि॒तरौ॑ । च॒ । पु॒त्रान्॥१२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः। अश्लोणा अङ्गैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । सुऽहार्द: । सुऽकृत: । मदन्ति । विऽहाय । रोगम् । तन्व: । स्वाया: । अश्लोणा: । अङ्गै: । अह्रुता: । स्व:ऽगे । तत्र । पश्येम । पितरौ । च । पुत्रान्॥१२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 120; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यत्र) = जिस ग्रह में (सुहार्दः) = शोभन हदयावाले, (सकृतः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले लोग (स्वायाः तन्व:) = अपने शरीर के (रोगम्) = पापमूलभूत ज्वरादि को (विहाय) = छोड़कर (मदन्ति) = दुख से असम्भिन्न सुख के अनुभव में आनन्दित होते हैं, वही तो स्वर्ग है। वह गृहस्थ स्वर्ग है जहाँ लोगों के हृदय पवित्र हैं, जहाँ लोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे हुए हैं और जहाँ उनके शरीरों में रोग नहीं है। २. हमें (अङ्गेः अश्लोणा:) = अङ्गों से अविकृत होते हुए-कुष्ठ आदि रोगों से रहित (अह्रुताः) = अकुटिल गतिवाले व सरल स्वभाववाले होते हुए (तत्र स्वर्गे) = वहाँ स्वर्ग-तुल्य घर में (पितरौ) = माता-पिता को (च) = और (पुत्रान) = पुत्रों को (पश्येम) = देखें। माता-पिता का भी ध्यान करें, उनके भोजन आदि की व्यवस्था में गड़बड़ न हो और पुत्रों के शिक्षण-दीक्षण में त्रुटि न रह जाए।

    भावार्थ -

    स्वर्ग-तुल्य गृह वह है जहाँ [क] सबके हृदय पवित्र हैं, [ख] सब यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले हैं, [ग] सबके शरीर नीरोग हैं, [घ] अङ्ग अविकृत हैं, [ङ] स्वभाव सरल व अकुटिल हैं, [च] माता-पिता का आदर है और [छ] सन्तानों का शिक्षण-दीक्षण ठीक है।

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